कहानी मुझे लगता हैं सभी को बहुत पसंद होती हैं. शब्द कम, समझ ज्यादा. कठिन परिस्थतियो को भी सरलता से समझा और सुलझा सकती हैं कहानिया. वो हमारा साहित्य से पहला प्यार हैं. और पहला प्यार जीवन भर याद रहता हैं :-). चलिए वापिस आइये. ...तो कहानी हमारे पुरातन ज्ञान और विवेक को बड़ी सहजता पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाती हैं. आज के न्यूक्लियर परिवार के बच्चे उनसे महरूम हैं. और अब सिर्फ एक अंतहीन दौड़ हैं लक्ष्मी के पीछे जो कही पहुचती नहीं.
खैर..एक कहानी पढ़ी खुशवंत सिंह के एक लेख में. मुझे उन्हें पढना अच्छा लगता हैं. दिल से और साफ - साफ. एक सरदार की तरह...विपिन बख्शी की अनुमति लेना चाहता हूँ, इस बहुत सार्थक और सामयिक कहानी को यहाँ अपने दोस्तों के साथ साँझा करने के लिए..चलिए सुनते हैं...एक जंगल में........................................:-)......
_____________________प्रधानमंत्री बनाम बैंकर _____________________________________
देश के प्रधानमंत्री अपना एक चेक भुनाने बैंक में गए। कैशियर के करीब जाकर उन्होंने कहा : ‘गुड मॉर्निंग मैडम, क्या आप यह चेक भुना सकती हैं?’ कैशियर ने कहा : ‘बड़ी खुशी से, सर? क्या आप मुझे अपना आईडी दिखाएंगे?’
प्रधानमंत्री हैरान रह गए। उन्होंने कहा : ‘देखिए मैडम, मैं अपने साथ अपना आईडी तो लाया नहीं हूं, क्योंकि मैंने सोचा भी न था कि मुझसे आईडी मांगा जाएगा। शायद आपने मुझे ठीक से पहचाना नहीं। मैं देश का प्रधानमंत्री हूं।’
कैशियर ने कहा : ‘जी सर, मैं आपको भलीभांति पहचानती हूं, लेकिन नियम-कायदों का तकाजा यही है कि आप मुझे अपना आईडी दिखाएं, नहीं तो मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पाऊंगी।’
प्रधानमंत्री ने कहा : ‘मैडम, बैंक में इतने सारे लोग मौजूद हैं। सभी मुझसे पहचानते हैं। आप किसी से भी पूछ लीजिए। मेरी पहचान किसी से भी छुपी नहीं है।’
कैशियर ने कहा : ‘देखिए सर, आप मेरी बात ही समझ नहीं पा रहे हैं। सवाल पहचान का नहीं है। सवाल बैंक के नियमों का है। मैं नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकती।’
अब प्रधानमंत्री ने याचना की मुद्रा में कहा : ‘मैडम, मैं आपसे अनुरोध करता हूं। मुझे पैसों की सख्त जरूरत है।’
कैशियर ने कहा : ‘देखिए, आपको अपनी पहचान तो सिद्ध करना ही होगी। कुछ दिन पहले एक योगगुरु आए थे। अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए उन्हें कुछ योगासन करके दिखाना पड़े थे। फिर उसके बाद बाएं हाथ के एक धुरंधर बल्लेबाज आए थे। उन्हें अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए छह गेंदों पर छह छक्के लगाकर दिखाना पड़े थे। यदि आप भी अपनी पहचान सिद्ध कर पाएं तो हम आईडी के बिना भी आपको फौरन भुगतान कर देंगे।’
प्रधानमंत्री सोच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा : ‘मैडमजी, देखिए मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है। मुझे बिलकुल भी अंदाजा नहीं है कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए।’
कैशियर ने कहा : ‘ठीक है, ठीक है। अब और कुछ कहने की जरूरत नहीं। इससे सिद्ध होता है कि आप ही देश के प्रधानमंत्री हैं। बताइए महोदय, आपको कितने पैसों की दरकार है?’
Note: With thanks to Dainik Bhaskar (source: http://goo.gl/dCzsI)
Sunday, December 11, 2011
Saturday, October 29, 2011
ख़ुदा नहीं मिलता..
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..
ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.
लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.
कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..
आज इतना ही.
राहुल..
*मग़रिब - शाम की नमाज
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..
ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.
लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.
कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..
आज इतना ही.
राहुल..
*मग़रिब - शाम की नमाज
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Tuesday, October 25, 2011
तमसो माँ ज्योतिर्गमय:
दीये के प्रकाश की किरण और मंत्रो की गूंज हमारे जीवन को खुशी और संतोष से भर दे.. ईश्वर हमें इतना सक्षम बनाये की हम बुद्ध के सन्देश "अप्प दीपो भव:" को सार्थक करे और अपने आस पास के जीवन के अंधकार को हर ले.
दीप पर्व पर सभी को यही शुभकामनाये हैं.
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Sunday, October 9, 2011
समुंद समाना बूंद में.
********समुंद समाना बूंद में.****************
बड़े गहरे अर्थ छुपे,छोटी छोटी बातों में.
दूर गगन के तारें दिखते, काली-गहरी रातों में.
बड़े गहरे अर्थ छुपे,छोटी छोटी बातों में.....
कौन कहता, कुछ नया.
क्या रहा कुछ अनकहा?
मतलब वही, सिर्फ शब्द नया.
बात सुनने की हैं, गुनने की हैं.
और मौन में मथने की हैं.
जिन्दंगी का ग़र समझा तो,
चुटकुले पे हँसने की हैं.
क्या गीता, क्या कुरान?
बहते सब, तेरे ही अहसासों में.
बड़े गहरे से अर्थ छुपे,छोटी छोटी बातों में.
दूर गगन के तारें दिखते, काली-गहरी रातों में....
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल.
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स्टीव जोब्स: बूंद समानी समुंद में.
स्टीव जोब्स: अलविदा, हम तुम्हारे ऋणी हैं इस बात के की आपने इस दुनिया को ओर खुबसूरत बनाया. जिस दिन उनके बारे में,मैने पहली बात पढ़ा, समझ गया, किसी बुद्ध से परिचय हुआ. बिना लिखे रहा नहीं गया. एक बुद्ध व्यक्तित्व, पश्चिम का पूरब को, हमारे ऋषियों की श्रेणी का जवाब. अलविदा स्टीव..तुम्हे भुलाना नामुमकिन हैं...
एक बूंद सागर में समां गई, यही अंतिम सत्य हैं. उनके खुद के शब्दों में:
"Almost everything--all external expectations, all pride, all fear of embarrassment or failure--these things just fall away in the face of death, leaving only what is truly important. Remembering that you are going to die is the best way I know to avoid the trap of thinking you have something to lose. You are already naked. There is no reason not to follow your heart."
ओर यही बात मुझे इतना प्रभावित कर गई कि इस साल अपने से वादा किया कि :"दिल की ही सुनूंगा, कहूँगा और दिल से ही जिऊंगा'"..कभी उस प्रयोग के बारे में भी बात करने कि कोशिश करूँगा.
जैसे मौत के सन्दर्भ में जहा "बूंद समुन्द्र में समां जाती हैं", वैसे ही जीवन के रहस्यों के सन्दर्भ में, छोटी छोटी बातो में बड़े बड़े सागर छुपे होते हैं. जितना गोता गहरा, उतना मोती पाने की संभावना...या यूँ कंहू...समुंद समाना बूंद में...
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Sunday, October 2, 2011
तू रहना साथ मेरे ईश्वर.
आज गाँधी और शाश्त्री जयंती हैं.जितना वाद-विवाद-संवाद आधुनिक भारत में गाँधी पर हुआ और उन्हें एक ब्रांड बनाने की कोशिश की गई, उतना उन्हें प्रायोगिक रूप से समझा होता तो तस्वीर कुछ और होती. आखिर क्या हैं गाँधी के मायने? गाँधी: एक घटना, एक प्रयोग? या हाड - मांस का एक हमारी तरह साधारण इन्सान.आइन्स्टाइन याद आते हैं: "Generations to come will scarce believe that such a one as this ever in flesh and blood walked upon this earth.".
गाँधी: शायद गणेश के बाद एक ऐसा चरित्र हैं जिन्हें बहुत आसानी से स्केच किया जा सकता हैं. या यु कहू कुछ रेखाए ओर गाँधी साकार. क्या ये इस बात का घोतक हैं कि गाँधी को समझना बहुत आसान होंगा गर हमारे दिमाग और जीवन को उन रेखाओ जितना संजीदा और सादगी भरा कर ले?
एक बहुत ही असाधारण रूप से साधारण इन्सान लाल बहादुर शाश्त्री को नमन करता हूँ. जीवन मूल्य अगर उन जैसे होते तो ये दुनिया एक बहुत सुन्दर जगह होती. उन्हें अपने एक अन्य प्रयास Humanaire™ में शोध करने कि कोशिश करूँगा.
मुझे लिखने और उससे ज्यादा पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा. दादाजी के पास कुछ अच्छी किताबे थी. खूब मजा आता था. और पढ़ना भी ऐसा होता था जैसे मरू बारिश को सोख लेता हैं. सीधे आत्मा तक. एक किताब पकड़ी और दुनिया कही ओर...और अब जीवन भरे प्याले कि तरह प्रतीत होता हैं, अब कुछ नहीं आएगा उसमे. प्रार्थना और उससे ज्यादा कोशिश करूँगा कि प्याला फिर खाली हो ताकि कुछ नया नवेला उतरे और आत्मा को प्रकाशित करे. नहीं तो इस दुनिआदारी ने पूरी कोशिश कि हैं उस बच्चे को गर्त में धकेलने कि.
खैर,.......
उम्र के साथ क्या प्रार्थना और श्रद्धा कठिन हो जाती हैं? क्या हम बहुत जटिल बन जाते हैं? उम्र के सतरवे बसंत में एक प्रार्थना लिखी थी (02/08/1993), गाँधी और शाश्त्री जी को वही समर्पित करता हूँ और ईश्वर से दुआ मांगता हूँ कि वो जीवन मूल्य फिर फैशन से में आये.
**************************************************
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
बढता ही रहूँ मंजिल की तरफ.
बनू बहता नीर, न हो जाऊ बरफ.
मैं नदिया की धारा, सागर की तड़फ.
मैं वीणा का एक सुर, तू बिजली की कड़क.
भटकू न कभी, तू रखना नजर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
ये जीवन पथ काँटों से भरा.
गर कंटको पर ही चलना पड़ा.
करू उन्हें भी पार, तू देना हिम्मत.
मरुभूमि में भी रहू सदा कार्यरत.
रखना कृपा सदा मुझ पर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
यु ही कट जायेगा ये कठिन सफ़र.
मंजील भी आयेगी एक दिन नजर.
मंजिल पे पहूच न बनू अभिमानी.
इतना तो करना ओ मेरे स्वामी.
पीकर अमृत, न भूलू जहर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल (कबीरसूत्रा).
गाँधी: शायद गणेश के बाद एक ऐसा चरित्र हैं जिन्हें बहुत आसानी से स्केच किया जा सकता हैं. या यु कहू कुछ रेखाए ओर गाँधी साकार. क्या ये इस बात का घोतक हैं कि गाँधी को समझना बहुत आसान होंगा गर हमारे दिमाग और जीवन को उन रेखाओ जितना संजीदा और सादगी भरा कर ले?
एक बहुत ही असाधारण रूप से साधारण इन्सान लाल बहादुर शाश्त्री को नमन करता हूँ. जीवन मूल्य अगर उन जैसे होते तो ये दुनिया एक बहुत सुन्दर जगह होती. उन्हें अपने एक अन्य प्रयास Humanaire™ में शोध करने कि कोशिश करूँगा.
मुझे लिखने और उससे ज्यादा पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा. दादाजी के पास कुछ अच्छी किताबे थी. खूब मजा आता था. और पढ़ना भी ऐसा होता था जैसे मरू बारिश को सोख लेता हैं. सीधे आत्मा तक. एक किताब पकड़ी और दुनिया कही ओर...और अब जीवन भरे प्याले कि तरह प्रतीत होता हैं, अब कुछ नहीं आएगा उसमे. प्रार्थना और उससे ज्यादा कोशिश करूँगा कि प्याला फिर खाली हो ताकि कुछ नया नवेला उतरे और आत्मा को प्रकाशित करे. नहीं तो इस दुनिआदारी ने पूरी कोशिश कि हैं उस बच्चे को गर्त में धकेलने कि.
खैर,.......
उम्र के साथ क्या प्रार्थना और श्रद्धा कठिन हो जाती हैं? क्या हम बहुत जटिल बन जाते हैं? उम्र के सतरवे बसंत में एक प्रार्थना लिखी थी (02/08/1993), गाँधी और शाश्त्री जी को वही समर्पित करता हूँ और ईश्वर से दुआ मांगता हूँ कि वो जीवन मूल्य फिर फैशन से में आये.
**************************************************
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
बढता ही रहूँ मंजिल की तरफ.
बनू बहता नीर, न हो जाऊ बरफ.
मैं नदिया की धारा, सागर की तड़फ.
मैं वीणा का एक सुर, तू बिजली की कड़क.
भटकू न कभी, तू रखना नजर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
ये जीवन पथ काँटों से भरा.
गर कंटको पर ही चलना पड़ा.
करू उन्हें भी पार, तू देना हिम्मत.
मरुभूमि में भी रहू सदा कार्यरत.
रखना कृपा सदा मुझ पर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
यु ही कट जायेगा ये कठिन सफ़र.
मंजील भी आयेगी एक दिन नजर.
मंजिल पे पहूच न बनू अभिमानी.
इतना तो करना ओ मेरे स्वामी.
पीकर अमृत, न भूलू जहर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल (कबीरसूत्रा).
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Sunday, September 25, 2011
मेरे हमसफ़र.
रोज कई सवाल पूछता हैं, मुझसे रूठा सा रहता हैं.
सुबह सुबह आईने में, एक शख्श रोज मिलता हैं.
कहता हैं कुछ अपने गिले शिकवे.
कुछ मेरी सुनता हैं.
हसता हैं कभी मेरे साथ,
चुपके से अक्सर रो भी लेता हैं.
भीड़ के बीच के सन्नाटे में, इतना तो सुकून हैं.
हर पल वो मेरे साथ रहता हैं.
रोज कई सवाल पूछता हैं, मुझसे रूठा सा रहता हैं.
सुबह सुबह आईने में, एक शख्श रोज मिलता हैं.
सुबह सुबह आईने में, एक शख्श रोज मिलता हैं.
कहता हैं कुछ अपने गिले शिकवे.
कुछ मेरी सुनता हैं.
हसता हैं कभी मेरे साथ,
चुपके से अक्सर रो भी लेता हैं.
भीड़ के बीच के सन्नाटे में, इतना तो सुकून हैं.
हर पल वो मेरे साथ रहता हैं.
रोज कई सवाल पूछता हैं, मुझसे रूठा सा रहता हैं.
सुबह सुबह आईने में, एक शख्श रोज मिलता हैं.
Thursday, August 25, 2011
मुखर अब मैं, मौन में हूँ.
मुखर अब मैं, मौन में हूँ.
प्रश्न वही, कौन मैं हूँ.
नदी लहरा लहरा जाती.
सागर में खो जाती.
उत्तर कब कहा मिला.
और नदी अब बची कहा.
प्रश्न ही पूछे कौन अब मैं हूँ.
मुखर अब मैं, मौन में हूँ.
प्रश्न वही, कौन मैं हूँ.
मुखर अब मैं, मौन में हूँ.
...
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल.
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Monday, August 15, 2011
एक छोटी से चिट्ठी, जन लोकपाल आन्दोलन के नाम.
अन्ना और हमें चाहिए की अब बात लोकपाल से आगे हो. अब हर मुद्दे पर बात चाहिए. अब बस थोपना बर्दाश्त नहीं. अब मूढो को वोट नहीं करेंगे. अब धन सग्रहण की असाध्य बीमारी से लकवाग्रस्त लोगो को नहीं झेलेंगे. हमें एक बेहतर आज और कल चाहिए.
और मूढो को ठीक से देखिये, एक भय और एक चिडचिडापण पैदा हो रहा हैं. एक डर हैं, साफ हैं अपना किया कराया दिख रहा हैं. और यह भी दिख रहा हैं कि आवाम अब पोपली बातों कि राजनीती से नहीं बरगलने वाली नहीं हैं. अब एक इंटिग्रिटी चाहिए, एक संवाद चाहिए और एक दिशा चाहिए.
मुझे डर हैं गर अन्ना और उनसे ज्यादा ये हुक्मरान इस अवसर को एक किसी मुद्दे पर लाकर उसे कोई नया आयाम न दे दे. अन्ना, केजरीवाल जी,किरण जी और हमें चाहिए कि, इस अवसर को एक गहन और तीव्र संवाद में बदले और २०१५ प्लान तैयार करे. यह एक निर्णायक पल हैं, वरना इस देश कि आबादी इस देश कि GDP को तो बड़ा देगी लेकिन Happiness Index और एक पूर्ण सामाजिक किओस से नहीं बचा पाएंगी. इतना विशाल आवाम नेतृत्व विहीनता बर्दाशत नहीं कर पायेगे. USSR कि तरह हश्र होने में कोई देर नहीं लगेगी.
अवसर हमारी और देख रहा हैं.
"---एक सामान्य - गवार भारतीय"
जिसे आज भी "ऐ मेरे वतन के लोगो" सुनकर न सिर्फ आंसू गिरते हैं, वरन रोंगेटे खड़े हो जाते हैं.
और मूढो को ठीक से देखिये, एक भय और एक चिडचिडापण पैदा हो रहा हैं. एक डर हैं, साफ हैं अपना किया कराया दिख रहा हैं. और यह भी दिख रहा हैं कि आवाम अब पोपली बातों कि राजनीती से नहीं बरगलने वाली नहीं हैं. अब एक इंटिग्रिटी चाहिए, एक संवाद चाहिए और एक दिशा चाहिए.
मुझे डर हैं गर अन्ना और उनसे ज्यादा ये हुक्मरान इस अवसर को एक किसी मुद्दे पर लाकर उसे कोई नया आयाम न दे दे. अन्ना, केजरीवाल जी,किरण जी और हमें चाहिए कि, इस अवसर को एक गहन और तीव्र संवाद में बदले और २०१५ प्लान तैयार करे. यह एक निर्णायक पल हैं, वरना इस देश कि आबादी इस देश कि GDP को तो बड़ा देगी लेकिन Happiness Index और एक पूर्ण सामाजिक किओस से नहीं बचा पाएंगी. इतना विशाल आवाम नेतृत्व विहीनता बर्दाशत नहीं कर पायेगे. USSR कि तरह हश्र होने में कोई देर नहीं लगेगी.
अवसर हमारी और देख रहा हैं.
"---एक सामान्य - गवार भारतीय"
जिसे आज भी "ऐ मेरे वतन के लोगो" सुनकर न सिर्फ आंसू गिरते हैं, वरन रोंगेटे खड़े हो जाते हैं.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
छोटे छोटे पग ही, दांडी यात्रा बन जाते हैं.
एक एक कर जोड़, सुभाष फौज ले आते हैं.
यूँ ही एक दिन आज़ादी नहीं मिली.
हर बन्दे में आज़ाद-सुभाष सी बात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
कब तक "चलता हैं" का रवैया अख्तियार कर रहेंगे हम.
कब तक दूसरो को ही दोष देते रहेंगे हम.
भ्रष्ट हैं, लाचार हैं, बोने से व्यक्तित्व हैं.
शिखर पर अब एक सरदार चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
आईने में दिखते बुझे से शख्स को, जिस दिन जवाब दे पाए.
ऐसे ही किसी दिन की शुरुआत चाहिए.
सहमा क्यों हैं, अपने घर से निकल तो सही.
वक्त को तेरी आवाज़ चाहिए.
"मेरे पापा ने एक सुन्दर सा संसार मुझे सौपा हैं."
कर गुजरने का यही वक्त हैं, गर चिता पर बच्चो का ये धन्यवाद चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
बस, एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल
A Better Human, A Better World!
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
छोटे छोटे पग ही, दांडी यात्रा बन जाते हैं.
एक एक कर जोड़, सुभाष फौज ले आते हैं.
यूँ ही एक दिन आज़ादी नहीं मिली.
हर बन्दे में आज़ाद-सुभाष सी बात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
कब तक "चलता हैं" का रवैया अख्तियार कर रहेंगे हम.
कब तक दूसरो को ही दोष देते रहेंगे हम.
भ्रष्ट हैं, लाचार हैं, बोने से व्यक्तित्व हैं.
शिखर पर अब एक सरदार चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
आईने में दिखते बुझे से शख्स को, जिस दिन जवाब दे पाए.
ऐसे ही किसी दिन की शुरुआत चाहिए.
सहमा क्यों हैं, अपने घर से निकल तो सही.
वक्त को तेरी आवाज़ चाहिए.
"मेरे पापा ने एक सुन्दर सा संसार मुझे सौपा हैं."
कर गुजरने का यही वक्त हैं, गर चिता पर बच्चो का ये धन्यवाद चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
बस, एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल
A Better Human, A Better World!
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Next Movement,
Small makes big difference,
Subhash
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Saturday, August 13, 2011
Happiness Index
आजकल थोडा ध्यान कर रहा हूँ. सो ज्यादा विचार आते नहीं, और अगर आते भी हैं तो उन्हें शब्दों में उतारने की प्रसव पीड़ा से गुजरे कौन. कुछ समय पहले अपने ही एक article पर एक टिपण्णी की थी --"मैं कहता आँखन देखी.: वक्त की अप्रत्याशित करवट और मेरी झुंझलाहट: बाज़ार की ताकते और कुछ कटु असहज सत्य--http://goo.gl/4MNIx"
सोचा उसी को दोहराऊ. कुछ बाते आज के दौर के बारे में थी. और मेरा स्वप्न प्रोजेक्ट "Happiness Index" के बारे में.
क्या कोई रिश्ता हैं, वैश्वीकरण और नैतिकता का, मानवीयता का. समाजशास्त्रियो के लिए शोध का विषय हो सकता हैं. मेरी पीढ़ी अपने आपको दो भागो में बटा पाती हैं. १९९१ से पहले, और बाद. एक पूरे संक्रमण के समय से गुजरे हैं, हम लोग. मन मोहन सिंह जी इस परिवर्तन के पुरोधा हैं, लेकिन मुझे लगता हैं कुछ सावधानिया अनिवार्य थी, और वे एक भद्र इन्सान की तरह इस पर पूर्ण मौन हैं. शिखर पर ये शुन्य बर्दाश्त नहीं होता. परिवर्तन स्वीकार्य हैं लेकिन खुले दिमाग के साथ. मेरे हिसाब से GDP के साथ Happiness Index का भी ख्याल रखा जाना चाहिए. या यूँ कहू पहले Happiness Index, बॉस. और ये बात मेरे जैसा अदना इन्सान तो शिद्दत के साथ महसूस करता ही हैं, मेरे आदर्श JRD टाटा साहब पहले ही कह गए हैं: "I do not want India to be an economic superpower. I want India to be a happy country." : JRD Tata".
वैसे इन्सान अब देखने को नहीं मिलते, जाने कहा गए वो लोग. विश्वास नहीं होता. उधम सिंह जैसे जस्बे वाले लोग इस धरती पे हुए हैं, जिन्हें ये बर्दाश्त नहीं हुआ की कोई कीड़े मकोड़े की तरह ख़त्म कर दे लोगो को, डायर को उसका सबक, उस के घर पर जा सिखाया. काफी लोगो को उधम सिंह के बारे में मालूम ही नहीं हैं. नैतिकता और ईमानदारी की तो बात ही क्या, GDP बढ़ने के साथ ये गिरते जा रहे हैं. मुझे एक बड़ा कारण इसका आबादी लगता हैं. मन मोहन सिंह जी और अर्थशाश्त्रिजन आबादी का GDP , कंसप्शन से नाता तो जोड़ लेते हैं, लेकिन Happiness Index के बारे में एक मुर्दा ख़ामोशी हैं. एक सार्थक चिंतन जरुरी हैं, जिंदगी और उसकी प्राथमिकताओ के लिए. एक इशारा ये भी हैं की, मेरे छोटे से अदने से गाँव के इतिहास में कुछ आत्महत्याए पहली बार हुई हैं.
कही न कही आज की अन्य समस्यायों जैसे नक्सलवाद, माओवाद का इनसे गहरा सम्बन्ध हैं. शुरुआत आप हम जैसे लोगो को भी करना होंगी, चाहे वो "राम सेतु" में गिलहरी के योगदान जैसा ही हो. ये सूरत बदलनी ही चाहिए.
कहना और करना काफी कुछ हैं, आज इतना ही.
सोचा उसी को दोहराऊ. कुछ बाते आज के दौर के बारे में थी. और मेरा स्वप्न प्रोजेक्ट "Happiness Index" के बारे में.
क्या कोई रिश्ता हैं, वैश्वीकरण और नैतिकता का, मानवीयता का. समाजशास्त्रियो के लिए शोध का विषय हो सकता हैं. मेरी पीढ़ी अपने आपको दो भागो में बटा पाती हैं. १९९१ से पहले, और बाद. एक पूरे संक्रमण के समय से गुजरे हैं, हम लोग. मन मोहन सिंह जी इस परिवर्तन के पुरोधा हैं, लेकिन मुझे लगता हैं कुछ सावधानिया अनिवार्य थी, और वे एक भद्र इन्सान की तरह इस पर पूर्ण मौन हैं. शिखर पर ये शुन्य बर्दाश्त नहीं होता. परिवर्तन स्वीकार्य हैं लेकिन खुले दिमाग के साथ. मेरे हिसाब से GDP के साथ Happiness Index का भी ख्याल रखा जाना चाहिए. या यूँ कहू पहले Happiness Index, बॉस. और ये बात मेरे जैसा अदना इन्सान तो शिद्दत के साथ महसूस करता ही हैं, मेरे आदर्श JRD टाटा साहब पहले ही कह गए हैं: "I do not want India to be an economic superpower. I want India to be a happy country." : JRD Tata".
वैसे इन्सान अब देखने को नहीं मिलते, जाने कहा गए वो लोग. विश्वास नहीं होता. उधम सिंह जैसे जस्बे वाले लोग इस धरती पे हुए हैं, जिन्हें ये बर्दाश्त नहीं हुआ की कोई कीड़े मकोड़े की तरह ख़त्म कर दे लोगो को, डायर को उसका सबक, उस के घर पर जा सिखाया. काफी लोगो को उधम सिंह के बारे में मालूम ही नहीं हैं. नैतिकता और ईमानदारी की तो बात ही क्या, GDP बढ़ने के साथ ये गिरते जा रहे हैं. मुझे एक बड़ा कारण इसका आबादी लगता हैं. मन मोहन सिंह जी और अर्थशाश्त्रिजन आबादी का GDP , कंसप्शन से नाता तो जोड़ लेते हैं, लेकिन Happiness Index के बारे में एक मुर्दा ख़ामोशी हैं. एक सार्थक चिंतन जरुरी हैं, जिंदगी और उसकी प्राथमिकताओ के लिए. एक इशारा ये भी हैं की, मेरे छोटे से अदने से गाँव के इतिहास में कुछ आत्महत्याए पहली बार हुई हैं.
कही न कही आज की अन्य समस्यायों जैसे नक्सलवाद, माओवाद का इनसे गहरा सम्बन्ध हैं. शुरुआत आप हम जैसे लोगो को भी करना होंगी, चाहे वो "राम सेतु" में गिलहरी के योगदान जैसा ही हो. ये सूरत बदलनी ही चाहिए.
कहना और करना काफी कुछ हैं, आज इतना ही.
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Saturday, June 18, 2011
मौन ही बेहतर प्यार की भाषा.
बहुत दिनों से ब्लॉग पर सुखा पड़ा था, सोचा कुछ बुँदे के साथ ही सही, मानसून का स्वागत तो किया जाये. मौन के कुछ पलों में, कुछ उतरा, उसे ही लिख देता हूँ.
---*** मौन ही बेहतर प्यार की भाषा. ***---------
भाषा - बोली यही आ सीखी.
बोला वही, जो बात तुझमे दिखी.
तुने क्या समझा, मैंने क्या कहा.
बोली का धोखा, हमेशा रहा.
दिल ही दिल की समझे परिभाषा.
मौन ही बेहतर प्यार की भाषा.
आज इतना ही.
राहुल.
---*** मौन ही बेहतर प्यार की भाषा. ***---------
भाषा - बोली यही आ सीखी.
बोला वही, जो बात तुझमे दिखी.
तुने क्या समझा, मैंने क्या कहा.
बोली का धोखा, हमेशा रहा.
दिल ही दिल की समझे परिभाषा.
मौन ही बेहतर प्यार की भाषा.
आज इतना ही.
राहुल.
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Wednesday, March 30, 2011
The Final is Here: INDIA Vs SHRILANKA: Watch Live Cricket Match
Discontinuing this link..I am happy that lots of my friends enjoyed World Cup Matches...:-)
Saturday, February 19, 2011
कश्मकश
कुछ कच्ची-सच्ची कलिया, मखमली ख्वाब बुनती हैं.
जीवन की कड़वी सच्चाईयां उन्हें शीशे सा तोड़ देती हैं.
इन दों द्वंदों के बीच, असहाय, अत्प्रभ खड़ा मैं.
सोचता हूँ, जिधर दिमाग चाहे उधर जाऊ.
या जिधर दिल धडके उधर जाऊ.
अभी अभी आँखों से कुछ पानी
लाल रंग लिए ढलका हैं.
अभी अभी, अलसुबह कोई ख्वाब फिर टुटा हैं.
अभी अभी कोई मुझमे में ही, मुझसे फिर रूठा हैं.
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राहुल
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Sunday, January 2, 2011
नव वर्ष की शुभकामनाएं.
Wish all readers & bloggers a Very Happy and Prosperous new year, 2011!!!
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