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Monday, August 15, 2011

एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.

एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.

छोटे छोटे पग ही, दांडी यात्रा बन जाते हैं.
एक एक कर जोड़, सुभाष फौज ले आते हैं.
यूँ ही एक दिन आज़ादी नहीं मिली.
हर बन्दे में आज़ाद-सुभाष सी बात चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.

कब तक "चलता हैं" का रवैया अख्तियार कर रहेंगे हम.
कब तक दूसरो को ही दोष देते रहेंगे हम.
भ्रष्ट हैं, लाचार हैं, बोने से व्यक्तित्व हैं.
शिखर पर अब एक सरदार चाहिए.
एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.

आईने में दिखते बुझे से शख्स को, जिस दिन जवाब दे पाए.
ऐसे ही किसी दिन की शुरुआत चाहिए.
सहमा क्यों हैं, अपने घर से निकल तो सही.
वक्त को तेरी आवाज़ चाहिए.
"मेरे पापा ने एक सुन्दर सा संसार मुझे सौपा हैं."
कर गुजरने का यही वक्त हैं, गर चिता पर बच्चो का ये धन्यवाद चाहिए.

एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.
कुछ बुँदे तो बरसे, गर बरसात चाहिए.
बस, एक छोटी सी शुरुआत चाहिए.

आज इतना ही.
प्यार.
राहुल
A Better Human, A Better World!

Sunday, August 15, 2010

आजादी के मायने और असली आजादी.

 हिंदुस्तान एक आज़ाद मुल्क हैं. आखिर क्या हैं ये आज़ादी? हम कुछ भी करे, ये आज़ादी हैं? तो फिर हम आज़ाद हैं. हम वाकई कुछ भी करते हैं. सड़क चलते थूकते हैं. ट्रेन व् स्टेशन गंद्न्गी का साम्राज्य हैं. धर्मस्थल हमने पोलिथिंस से भर दिए हैं और उन्हें किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान में परिवर्तित कर दिया हैं. घर का सारा करकट कूचा पास बहती नदियो में डाल दिया हैं. देश की नसे, हमारी पवित्र नदियो को हमने नाले से भी बदतर बना दिया हैं. पास से गुजरते हुए नाक सिकोड़ना पड़ती हैं.
 
प्रोफेसनिलस्म के नाम पर हम सिर्फ धूर्त व्यवहार करना  सीख चुके हैं. और ये बीमारी सिर्फ महानगरो तक सिमित नहीं, छोटे-छोटे गाँव की बसाहट इससे अब अछूती नहीं रही. लोंगो के आदर्श अब हर रोज अपनी सुविधानुसार परिवर्तित होते हैं. असल बात ये हैं, अब हर जगह छुद्रता हावी हैं. कद बोने हो चुके हैं. कुछ समय पहले बोनसाई वृछ आये थे, अब बोनसाई व्यक्तित्व हैं. अपवादों की कमी नहीं, लेकिन उन्हें भी सिर्फ शिखंडी की तरह रक्छाकवच की तरह उपयोग किया जाता हैं, ताकि परदे के पीछे सारा खेल वही चलता रहे. देश का सत्यानाश करने की अगर बात करे, तो वाकई हम सब आज़ाद हैं.
 
ये जानते हुए भी की, अगला निशाना हम भी हो सकते हैं, हम अपने पड़ोसिओ की मुसीबत के वक्त गाँधी के बन्दर बन जाते हैं. सीधा पूछता हूँ यार, क्या आप अपने पडोसी पर विश्वास करते हैं? या वो आप पर करता हैं? क्या कर रहे हैं ये देखना हो तो किसी भी दिन का समाचार पत्र उठा के देख ले. 
एक अन्दर से कही किसी काहिलता, धुर्तपन ने जकड़ा हुआ हैं. या यु कहे हमारा धीरज, हमारा विवेक नापुशंकता की हद तक पहुच चूका हैं.
 
आज किसी आम आदमी की वो ओकात नहीं रही की वो कोई चुनाव जीतकर सत्ता के नशे में सोये हुए सत्तानशिनो को जगा पाए. उन्होंने पूरा बंदरबाट का इंतजाम किया हुआ हैं. साले, सब आपस में मिले हुए हैं. पूरा बंदोबस्त हैं इस बात का की आम आदमी इसी तरह घिसट-घिसट के जिए.
और लालच, धूर्तता का भी कही अंत नहीं, साले ब्लैक होल की तरह चूस रहे हैं. १०० करोड़, फिर १००० करोड़ चाहिए, फिर १०००० करोड़. कही अंत नहीं. वे भी आज़ाद हैं, लुटने, खसोटने को. हमें भी कुछ आज़ादी दे रखी हैं. मार दो इन्सान को नक्सलवाद के नाम पर. फेंक दो पत्थर अपनी ही सेना पर. तोड़-फोड़ दो सार्वजनिक संपत्ति अपनी भड़ास के निकालने के लिए. और गुस्सा बचा हो तो फेंक तो अपना जूता नेताओ पर. लेकिन फिर जियो वैसे हो घिसट कर. कीड़े की तरह. तुम्हे, "आम आदमी" इतनी ही आज़ादी हैं. जियो ऐसे ही.

तो आम आदमी भी आज़ाद हैं, नेता भी आज़ाद हैं, हिंदुस्तान भी.
फिर आखिर तेरी प्रॉब्लम क्या हैं, मुस्सदी.यह प्रशन सुन फिर नेपथ्य में चला जाता हु.

दुष्यंत फिर याद आते हैं....

मेरे सीने में नहीं तो तेरे  सीने में सही,
हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामे खड़े करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश हैं कि ये सूरत बदलनी चाहिए |

कुछ अपनी बची खुची अशाओ के साथ, आपको असली स्वातन्त्रय मिले, खोया हुआ विवेक मिले, ये शुभकामना करता हूँ.
प्यार,
राहुल