मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..
ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.
लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.
कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..
आज इतना ही.
राहुल..
*मग़रिब - शाम की नमाज
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भावस्पर्शी कविता दिल को छू गई | धन्यवाद |
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
ReplyDeleteमंगलकामनाएँ!
har shabdo ko moti ki mala me piroya hai apne . sunder prastui . bdhai .
ReplyDeletehttp/sapne-shashi.blogspot.com
बहुत खूब .....
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें !
ALLAH JANTA HAI KHUD KA MARTBA
ReplyDeleteTALASH KEJIYE DIL EK MARTBA
MASHA ALLAH
TARANNUM KHAN
WAH BAHUT KHOOB
ReplyDeleteAYAZ KHAN (BHYYU AGAR )
dost bahut khub likha hai.. aur ishi pe do lines yaad aa gayi.
ReplyDeleteke patta bhi nahi hilta tumhai marji ke bine... phir bhi aadmi gunahgaar hai pata nahi kyon....
मुक़द्दर केवल लिखा नहीं होता,लिखा भी जाता है। जिसे अपने भीतर का कुछ पता हो,वही मंदिर-मस्जिद में भी खुदा पा सकता है। खुशी भी सापेक्षिक नहीं है।
ReplyDeleteसबकुछ उल्टा-पुल्टा चल रहा है। थोड़ी यात्रा भीतर की हो जाए,तो सुकूं मिले।
ReplyDeleteथैंक्स @श्रीकांत , @शाश्त्री जी, @प्रवीन भाई, @संजय, @शशि जी,@सतीश सर, @ मेम, @भय्यु :-), @अनु एंड @ कुमार जी.
ReplyDeleteकुमार जी सच कहा आपने "जिसे अपने भीतर का कुछ पता हो,वही मंदिर-मस्जिद में भी खुदा पा सकता है"...सुना-पढ़ा मैने भी हैं, किताबो में, बुजुर्गो से..लेकिन यहाँ बात आंखन देखी की हैं..
ReplyDeleteसुना सुनी की हैं नहीं, देखन देखि बात.
दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पढ़ी बारात....
जिस दिन दोनों मिल गए फिर मस्जिद जाने की जरुरत भी नहीं, अजान खुद निकलेगी. लेकिन तब तक तलाश जारी हैं.:-)
किसी शायर ने कहा हैं:
कि बन्दे तुझमे दम हो तो मस्जिद को हिला के दिखा.
वरना आ, मेरे पास बैठ, दो घूंट पी, और मस्जिद को हिलता हुआ देख..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
ReplyDeleteसमंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं....उम्दा ...
खुदा भगवान आदित कहीं हो तो मिले?
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति, बेहतरीन रचना,....
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