कुछ कच्ची-सच्ची कलिया, मखमली ख्वाब बुनती हैं.
जीवन की कड़वी सच्चाईयां उन्हें शीशे सा तोड़ देती हैं.
इन दों द्वंदों के बीच, असहाय, अत्प्रभ खड़ा मैं.
सोचता हूँ, जिधर दिमाग चाहे उधर जाऊ.
या जिधर दिल धडके उधर जाऊ.
अभी अभी आँखों से कुछ पानी
लाल रंग लिए ढलका हैं.
अभी अभी, अलसुबह कोई ख्वाब फिर टुटा हैं.
अभी अभी कोई मुझमे में ही, मुझसे फिर रूठा हैं.
.
राहुल
बहुत सरल चित्रण, रोज ही तो होता है।
ReplyDeleteThanks Pravin Bhai..Your words encourage me.
ReplyDelete