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Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


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Saturday, May 10, 2014

मनुष्य मर रहा हैं.

भावनाओ को , कुछ अहसांसो को.
दे देता हैं, मानव, कोई  शब्द।
फिर घिसता जाता हैं उन्हे।
समय के पत्थर पर.

शब्द खोते जाते हैं, अर्थ अपना।
और साथ ही होती हैं दफ़न.
वो भावनाए, वो अहसास।

और हाड़ मांस का पुतला
बनता जाता है मशीन।
मशीन जिसे शब्दों कि सिर्फ़ ध्वनि पता है.
नहीं पता, उन्हें निभाने के मायने
उनके आगे पीछे छिपी, अहसांसो कि गर्माहट।
उनकी रूहानियत की खुशबू।

ईश्वर उदघोषणा करता सा लगता है.
"मनुष्य मर रहा हैं."

Sunday, January 27, 2013

तू या मैं?


रोज सबेरे मैं ही तो आता हूँ,
तभी तो होती हैं रौशनी
तुम्हारा अँधेरा हरता हैं।

ये तो तुम्हारी ही समस्या हैं,
तुम चले जाते हो
मंदिर मस्जिद में मुझे खोजने।

और मैं आता हूँ कई भेष लिए
तुम्हारे दरवाजे पर
खटखटाता भी हूँ।
पर तुम विचरते हो
किसी और माया -संसार में।

और फिर तुम नास्तिक बन जाते हो।
कहते हो कि "मैं" मर गया।
हाँ, मैं मरता हूँ हर गुजरे पल में।
लेकिन रहता हूँ, पैदा होता हूँ, हर नए ताजे पल में, मैं ही।

भूतो न भविष्यति।
मैं वर्तमान हूँ।
कुछ भी नाम दे दो मुझे।
मैं प्रार्थना ,मैं ही अजान हूँ।
गीता और कुरान हूँ।
नाद में "हूँ" मैं।
मैं ही अनाद में।
मैं प्रेम में।
नि:छल मुस्कान में।
खोजने की वस्तु नहीं, मैं।
जीने में मिलता हूँ।
मैं वो फ़ूल हूँ,
जहा तुम्हारा, "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।

जहा तुम्हारा "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।
**********************
-आज इतना ही।

Saturday, October 29, 2011

ख़ुदा नहीं मिलता..

मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..

ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.

लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.

मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..

हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.

कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.

मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..

आज इतना ही.
राहुल..

*मग़रिब - शाम की नमाज

Sunday, October 2, 2011

तू रहना साथ मेरे ईश्वर.

आज गाँधी और शाश्त्री जयंती हैं.जितना वाद-विवाद-संवाद आधुनिक भारत में गाँधी पर हुआ और उन्हें एक ब्रांड बनाने की कोशिश की गई, उतना उन्हें प्रायोगिक रूप से समझा होता तो तस्वीर कुछ और होती. आखिर क्या हैं गाँधी के मायने? गाँधी: एक घटना, एक प्रयोग? या हाड - मांस का एक हमारी तरह साधारण इन्सान.आइन्स्टाइन याद आते हैं: "Generations to come will scarce believe that such a one as this ever in flesh and blood walked upon this earth.".


गाँधी: शायद गणेश के बाद एक ऐसा चरित्र हैं जिन्हें बहुत आसानी से स्केच किया जा सकता हैं. या यु कहू कुछ रेखाए ओर गाँधी साकार. क्या ये इस बात का घोतक हैं कि गाँधी को समझना बहुत आसान होंगा गर हमारे दिमाग और जीवन को उन रेखाओ जितना संजीदा और सादगी भरा कर ले?




एक बहुत ही असाधारण रूप से साधारण इन्सान लाल बहादुर शाश्त्री को नमन करता हूँ. जीवन मूल्य अगर उन जैसे होते तो ये दुनिया एक बहुत सुन्दर जगह होती. उन्हें अपने एक अन्य प्रयास Humanaire में शोध करने कि कोशिश करूँगा.


मुझे लिखने और उससे ज्यादा पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा. दादाजी के पास कुछ अच्छी किताबे थी. खूब मजा आता था. और पढ़ना भी ऐसा होता था जैसे मरू बारिश को सोख लेता हैं. सीधे आत्मा तक. एक किताब पकड़ी और दुनिया कही ओर...और अब जीवन भरे प्याले कि तरह प्रतीत होता हैं, अब कुछ नहीं आएगा उसमे. प्रार्थना और उससे ज्यादा कोशिश करूँगा कि प्याला फिर खाली हो ताकि कुछ नया नवेला उतरे और आत्मा को प्रकाशित करे. नहीं तो इस दुनिआदारी ने पूरी कोशिश कि हैं उस बच्चे को गर्त में धकेलने कि.


खैर,.......
उम्र के साथ क्या प्रार्थना और श्रद्धा कठिन हो जाती हैं? क्या हम बहुत जटिल बन जाते हैं? उम्र के सतरवे बसंत में एक प्रार्थना लिखी थी (02/08/1993), गाँधी और शाश्त्री जी को वही समर्पित करता हूँ और ईश्वर से दुआ मांगता हूँ कि वो जीवन मूल्य फिर फैशन से में आये.

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ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
बढता ही रहूँ मंजिल की तरफ.
बनू बहता नीर, न हो जाऊ बरफ.
मैं नदिया की धारा, सागर की तड़फ.
मैं वीणा का एक सुर, तू बिजली की कड़क.
भटकू न कभी, तू रखना नजर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.

ये जीवन पथ काँटों से भरा.
गर कंटको पर ही चलना पड़ा.
करू उन्हें भी पार, तू देना हिम्मत.
मरुभूमि में भी रहू सदा कार्यरत.
रखना कृपा सदा मुझ पर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.

यु ही कट जायेगा ये कठिन सफ़र.
मंजील भी आयेगी एक दिन नजर.
मंजिल पे पहूच न बनू अभिमानी.
इतना तो करना ओ मेरे स्वामी.
पीकर अमृत, न भूलू जहर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर

ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर

आज इतना ही.
प्यार.
राहुल (कबीरसूत्रा).