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Saturday, May 23, 2015

इन्तजार


फिर से कलम उठा।
थोड़ी सी स्याही भरता हूँ।
बहुत दिनों से सोचता हूँ।
कोई खत लिखता हूँ।

लिखूंगा , आप कैसे हैं।
याद करता हूँ।
अब, आप जवाब नहीं देते।
न ही मिलने आते हैं।
बहुत याद करता हूँ।
आपको और उन दिनों को.

खत सिर्फ शब्द नहीं।
नमी भी साथ ले जाते हैं.
लिखते लिखते यु ही ।
अश्क अक्सर ढल जाते हैं।
और जो समझता हैं.
वो उसे भी महसूस कर लेता हैं।
शायद, कई खत आज तक।
पुरे पढ़े ही नहीं गए।
वो आज भी इन्तजार करते हैं।
कमरे के किसी कोने में।
कोई आएगा और।
समझेगा , उसमे बसी ऊष्मा और नमी को।
खतो को ठिकाने ही नही.
अक्सर, पूरा पढ़ने वाले भी नसीब नहीं होते।

फिर भी, बहुत दिनों से सोचता हूँ।
कोई खत लिखता हूँ।

लिख देता हूँ।
सब कुछ।
जो महसूस करता हुँ.
जजबातों से भर देता हूँ।
यह भी लिख देता हूँ ,
की, आप के जवाब का इन्तजार करूँगा।

फिर आता हूँ, खत के सबसे मुश्किल हिस्से में।
वहा पता लिखना होता हैं.
वो तो मुझे नहीं पता।
किसे लिखू , जो समझ लेगा।
देर तक सोचता हूँ, रोता हूँ।
फिर इस खत को भी।
सरका देता हूँ।
अलमारी के किसी कोने में रखे।
ख़तो के ढेर की और।
जो आज भी अपने पते के।
इन्तजार में हैं।
पढ़ने वाले का रास्ता देखते हैं।

कुछ ख़त जो समझे ही नहीं गए।
कुछ इंसा जो पढ़े ही नहीं गए।
कुछ इंसा और कुछ खतो का।
शायद यही नसीब हैं।
इन्तजार।
एक अंतहीन इन्तजार।
-राहुल

4 comments:

  1. बिना पते के ख़त लिखना और गंतव्य तक पहुंचाना सरल न था पर आपने इसे बहुत दूर तक अनजान को पहुंचा दिया |
    उम्दा लिखा है |

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    Replies
    1. thanks Asha Maa!! Apki blessings matters a lot.

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  2. thanks a ton, Sir. You have been doing great!! My Regards!!

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  3. अनजान रास्तों से होता हुआ कदाचित ये गंतव्य तक पहुँच गया है
    बधाई के पात्र है आप

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