आज गाँधी और शाश्त्री जयंती हैं.जितना वाद-विवाद-संवाद आधुनिक भारत में गाँधी पर हुआ और उन्हें एक ब्रांड बनाने की कोशिश की गई, उतना उन्हें प्रायोगिक रूप से समझा होता तो तस्वीर कुछ और होती. आखिर क्या हैं गाँधी के मायने? गाँधी: एक घटना, एक प्रयोग? या हाड - मांस का एक हमारी तरह साधारण इन्सान.आइन्स्टाइन याद आते हैं: "Generations to come will scarce believe that such a one as this ever in flesh and blood walked upon this earth.".
गाँधी: शायद गणेश के बाद एक ऐसा चरित्र हैं जिन्हें बहुत आसानी से स्केच किया जा सकता हैं. या यु कहू कुछ रेखाए ओर गाँधी साकार. क्या ये इस बात का घोतक हैं कि गाँधी को समझना बहुत आसान होंगा गर हमारे दिमाग और जीवन को उन रेखाओ जितना संजीदा और सादगी भरा कर ले?
एक बहुत ही असाधारण रूप से साधारण इन्सान लाल बहादुर शाश्त्री को नमन करता हूँ. जीवन मूल्य अगर उन जैसे होते तो ये दुनिया एक बहुत सुन्दर जगह होती. उन्हें अपने एक अन्य प्रयास Humanaire™ में शोध करने कि कोशिश करूँगा.
मुझे लिखने और उससे ज्यादा पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा. दादाजी के पास कुछ अच्छी किताबे थी. खूब मजा आता था. और पढ़ना भी ऐसा होता था जैसे मरू बारिश को सोख लेता हैं. सीधे आत्मा तक. एक किताब पकड़ी और दुनिया कही ओर...और अब जीवन भरे प्याले कि तरह प्रतीत होता हैं, अब कुछ नहीं आएगा उसमे. प्रार्थना और उससे ज्यादा कोशिश करूँगा कि प्याला फिर खाली हो ताकि कुछ नया नवेला उतरे और आत्मा को प्रकाशित करे. नहीं तो इस दुनिआदारी ने पूरी कोशिश कि हैं उस बच्चे को गर्त में धकेलने कि.
खैर,.......
उम्र के साथ क्या प्रार्थना और श्रद्धा कठिन हो जाती हैं? क्या हम बहुत जटिल बन जाते हैं? उम्र के सतरवे बसंत में एक प्रार्थना लिखी थी (02/08/1993), गाँधी और शाश्त्री जी को वही समर्पित करता हूँ और ईश्वर से दुआ मांगता हूँ कि वो जीवन मूल्य फिर फैशन से में आये.
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ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
बढता ही रहूँ मंजिल की तरफ.
बनू बहता नीर, न हो जाऊ बरफ.
मैं नदिया की धारा, सागर की तड़फ.
मैं वीणा का एक सुर, तू बिजली की कड़क.
भटकू न कभी, तू रखना नजर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
ये जीवन पथ काँटों से भरा.
गर कंटको पर ही चलना पड़ा.
करू उन्हें भी पार, तू देना हिम्मत.
मरुभूमि में भी रहू सदा कार्यरत.
रखना कृपा सदा मुझ पर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
यु ही कट जायेगा ये कठिन सफ़र.
मंजील भी आयेगी एक दिन नजर.
मंजिल पे पहूच न बनू अभिमानी.
इतना तो करना ओ मेरे स्वामी.
पीकर अमृत, न भूलू जहर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
ये जीवन हैं बड़ी लम्बी डगर.
तू रहना साथ मेरे ईश्वर
आज इतना ही.
प्यार.
राहुल (कबीरसूत्रा).
Sunday, October 2, 2011
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गांधी भी प्रयोग की वस्तु हो गये हैं।
ReplyDeleteईश्वर हमेशा साथ रहे ...
ReplyDeleteशुभकामनायें!
bahut badhiyaa... ishwar saath rahen
ReplyDeleteसच कहा आपने राहुल जी,सरलमना होकर ही गाँधीजी को समझा व उनके जीवन-दर्शन को जिया जा सकता है।आपका लेख मन व हृदय की पूर्ण एकात्मता से लिखे व प्रस्तुत किये जाने के कारण अद्भुत व सुंदरतम बन पड़ा है। आपकी पोस्ट पर आकर बहुत अच्छा लगा।
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