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Saturday, August 13, 2011

Happiness Index

आजकल थोडा ध्यान कर रहा हूँ. सो ज्यादा विचार आते नहीं, और अगर आते भी हैं तो उन्हें शब्दों में उतारने की प्रसव पीड़ा से गुजरे कौन. कुछ समय पहले अपने ही एक article पर एक टिपण्णी की थी --"मैं कहता आँखन देखी.: वक्त की अप्रत्याशित करवट और मेरी झुंझलाहट: बाज़ार की ताकते और कुछ कटु असहज सत्य--http://goo.gl/4MNIx"
सोचा उसी को दोहराऊ. कुछ बाते आज के दौर के बारे में थी. और मेरा स्वप्न प्रोजेक्ट "Happiness Index" के बारे में.

क्या कोई रिश्ता हैं, वैश्वीकरण और नैतिकता का, मानवीयता का. समाजशास्त्रियो के लिए शोध का विषय हो सकता हैं. मेरी पीढ़ी अपने आपको दो भागो में बटा पाती हैं. १९९१ से पहले, और बाद. एक पूरे संक्रमण के समय से गुजरे हैं, हम लोग. मन मोहन सिंह जी इस परिवर्तन के पुरोधा हैं, लेकिन मुझे लगता हैं कुछ सावधानिया अनिवार्य थी, और वे एक भद्र इन्सान की तरह इस पर पूर्ण मौन हैं. शिखर पर ये शुन्य बर्दाश्त नहीं होता. परिवर्तन स्वीकार्य हैं लेकिन खुले दिमाग के साथ. मेरे हिसाब से GDP के साथ Happiness Index का भी ख्याल रखा जाना चाहिए. या यूँ कहू पहले Happiness Index, बॉस. और ये बात मेरे जैसा अदना इन्सान तो शिद्दत के साथ महसूस करता ही हैं, मेरे आदर्श JRD टाटा साहब पहले ही कह गए हैं: "I do not want India to be an economic superpower. I want India to be a happy country." : JRD Tata".
वैसे इन्सान अब देखने को नहीं मिलते, जाने कहा गए वो लोग. विश्वास नहीं होता. उधम सिंह जैसे जस्बे वाले लोग इस धरती पे हुए हैं, जिन्हें ये बर्दाश्त नहीं हुआ की कोई कीड़े मकोड़े की तरह ख़त्म कर दे लोगो को, डायर को उसका सबक, उस के घर पर जा सिखाया. काफी लोगो को उधम सिंह के बारे में मालूम ही नहीं हैं. नैतिकता और ईमानदारी की तो बात ही क्या, GDP बढ़ने के साथ ये गिरते जा रहे हैं. मुझे एक बड़ा कारण इसका आबादी लगता हैं. मन मोहन सिंह जी और अर्थशाश्त्रिजन आबादी का GDP , कंसप्शन से नाता तो जोड़ लेते हैं, लेकिन Happiness Index के बारे में एक मुर्दा ख़ामोशी हैं. एक सार्थक चिंतन जरुरी हैं, जिंदगी और उसकी प्राथमिकताओ के लिए. एक इशारा ये भी हैं की, मेरे छोटे से अदने से गाँव के इतिहास में कुछ आत्महत्याए पहली बार हुई हैं.
कही न कही आज की अन्य समस्यायों जैसे नक्सलवाद, माओवाद का इनसे गहरा सम्बन्ध हैं. शुरुआत आप हम जैसे लोगो को भी करना होंगी, चाहे वो "राम सेतु" में गिलहरी के योगदान जैसा ही हो. ये सूरत बदलनी ही चाहिए.
कहना और करना काफी कुछ हैं, आज इतना ही.