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Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


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Friday, November 5, 2010

************शुभ दीपावली.***************



इस देश कि संस्कृति ने श्री-लक्ष्मी के साथ सरस्वती  को भी बैठाया. क्या कारण था? क्योकिं लक्ष्मी के साथ सदा अलक्ष्मी भी आती हैं. शायद मेरे देश कि भी आज यही समस्यां हैं. हमारे आँखों के पानी के साथ हमारी सरस्वती भी लुप्त हो गयी. ये नया बरस, सम्वंत २०६७ उस सरसवती को फिर से पुनर्जीवित करे, पुनह वो सरिता आपको शीतलता प्रदान करे, आपको श्री-लक्ष्मी के साथ विद्या, बुद्धि और विवेक मिले, इस दीप के पर्व पर यहीं शुभकामनाएं हैं.



  
शुभकामनाओ के साथ.
आर्या-राहुल-निधि 

Sunday, October 17, 2010

आज दशहरा है.



आज मेरी बस्ती में,
फिर एक घटना दोहराई जायेगी.
रावणो की भीड़,
एक अकेले पुतले को जला आएगी.
आज दशहरा है.
वो पुतला पूछता है अगर में रावण हू,
तो एक ही पाप की इतनी बार सजा क्यों?
पर भीड़ सुनती कहा हें,
अपने ही पापो की सजा, पुतले को दे आएगी.
.................रावणो की ये भीड़
एक अकेले पुतले को जला आएगी.

राम और रावण कही बाहर नहीं,
स्वयं मनुष्य के भीतर है.
बाहर तो मनुष्य,
हर दशहरे पर रावण समझ,
पुतला जला आता है,
किन्तु भीतर अन्दर कही,
हर रोज रावण, राम को हरा देता है.
अन्दर ही अब हर मनुष्य में,
हर रोज दशहरा होना चाहिए.
राम की जीत
और भीतर का रावण पराजीत होना चाहिए.
श्रींराम की जीत, और रावण पराजीत होना चाहिए.....

अंत में मेरे देश की उत्सवप्रियता को प्रणाम!
आज इतना ही.
प्यार
राहुल.

Sunday, September 26, 2010

इसी भीड़ में.

थोड़ी ऊचाई पर जब,खड़ा होता हूँ मैं.
दिखती हैं मुझे, रेंगती सी भीड़.
जानवरों की नहीं,
तथाकथित मानवों की. 
वह भीड़ जिसकी अपनी कोई मंजील नहीं.
न ही कोई दिशा.
एक दुसरे से टकराती जिन्दगिया,
एक दुसरे से आगे निकलने की होड़.
मानव से ही संघर्ष करता मानव.
सोचता हूँ कभी, क्या यही नियति हैं?
जन्म और मृत्यु के बीच सिर्फ संघर्ष ?
एक होड़, अपनों से, अपनों के बीच?

भीड़ कई प्रश्न छोड़ जाती हैं मुझ पर,
परन्तु उत्तर नहीं बताती.
मेरा सरल आत्मा उत्तर पूछती हैं,
भीड़ कहती हैं उत्तर शब्दों में निहित नहीं हैं.
आओ, और शामिल हो जाओ मुझ में तुम भी.
बनो मेरा हिस्सा और गुजरो प्रसव पीड़ा से.
क्योकि हर भीड़ में कुछ बुद्ध उत्तर पा जाते हैं.
फिर वे भीड़ से अलग हो जाते हैं.
जैसे कीचड़ में खिल जाये कोई कमल...
तुम्हे भी यही करना होंगा.

हाँ, मैं भी हूँ अब शामिल इसमे.
अनिच्छा से ही सही, लेकिन संघर्ष करता हुआ अपनों से.
जीता जा रहा हूँ मैं निरंतर,
नदी के बहाव में तिनके की तरह.
कि कभी मिलेंगा उत्तर.
और जान पाउँगा, आखिर कौन हूँ मैं.
लेकिन तब तक मुझे भी इसी भीड़ में जीना हैं.
हाँ, इसी भीड़ में.............................

आज इतना ही,
प्यार
राहुल.

Dated Composed on : 5:50 PM, 5 october, 1999

Sunday, September 19, 2010

वक्त की अप्रत्याशित करवट और मेरी झुंझलाहट: बाज़ार की ताकते और कुछ कटु असहज सत्य.

प्रीतिश नंदी के लेख (एक नाकाम पिता) पढने के बाद, मन भारी सा हो गया था. आखिर दुखती रग पर हाथ जो रख दिया गया. जो कटु अनुभव उन्होंने बांटे, उन्ही से मैं भी बैचेन और आहत हूँ.
चिंतित हूँ, बाज़ार की बढ़ती ताकतों से और हैरान हूँ बड़े कदों की छुद्रता से. और ये नपुंसक बातें नहीं हैं मेरे कटु अनुभव हैं. शिखरों ने अपनी छुद्रता से सन्न किया हैं मुझे. कई अनुभव हैं. किस्से सुनाने का शायद यह सही वक्त नहीं होगा, लेकिन मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ, जिसने मेरी और मेरे परिवार की हर मदद का प्रतिफल छुरा भोक कर किया. और यहाँ मैं ये भी बता दू की मैं किसी सड़क चलते की बात नहीं कर रहा हूँ. मैं बात कर रहा हूँ उस परिवार की जो अपने आप को सभ्य कहता हैं, शिक्षावान समझता हैं और परिवार का मुखिया एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे खासे ओहदे पर हैं. परन्तु मानवीयता के किसी गुण (दया, स्नेह, मदद, मासूमियत, दोस्ती, रिश्ते और उसकी गर्माहट.) पर पूरा परिवार भयानक रूप से गरीब हैं. गरीब कहना भी शायद किसी  गरीब की बेज्जती होगी.क्योकि ये गरीबी बाहरी नहीं हैं, ये आन्तरिक हैं. निर्धन इन्सान को भी मैने किसी धनवान से अमीर पाया हैं. बहरहाल ये पूरा परिवार एक ही भाषा समझता हैं, जो आज बाज़ार की भाषा हैं. वो भाषा हैं- पैसो की भाषा.
 मेरे संस्कार और अनुभव से परे लोग हैं ये. और मुझे आज भी ये समझने में दिक्कत होती हैं कि कोई कैसे मदद का प्रतिफल चांटा मार के कर सकता हैं? तो एक तरीके से मेरे लिए ये एक कल्चरल शॉक था. किन्तु दुःख कि और बात ये थी कि, वो अपने बच्चो को भी उनकी मासूमियत छीन कर वही घिनोनापन सिखा रहे हैं. और मेरी परेशानी ये होती हैं कि क्या मैं अपने बच्चो को भी वही मानवीय गुण सिखाऊ जो मैने अपने संसकारों में पाए थे, और जो अब व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं, क्योकि उन्हें भी तो वैसे ही लोगो का सामना कर पड़ सकता हैं जो वो परिवार तैयार कर रहा हैं. एक गहन बैचेनी अन्दर कही सिलती हैं. और किस्से कहू, सुनता कौन हैं.
बाज़ार कि ताकते पूरी तरह हावी हैं, और जो बिकता हैं, बस वही सही हैं. बस एक यही प्रतिमान बचा हैं, गलत और सही के भेद का अब तो.
एक कॉर्पोरेट ट्रेनिंग में था, ट्रेनर ने कहा: "गये वो दिन जब कोई चीज ईमानदारी होती थी". और मेरे अधिकतर साथी सहमत दिखे. ये शुन्यता देख निराशा हुई. "कुए में भांग वाली" वाली कहावत और किस्सा याद आता हैं. गोया कि अब दो ही चुनाव हैं, या तो "दर्द सहो और कोशिश करते रहो." रविंद्रनाथ के "एकला चलो रे" कि तरह, या फिर "पियो भांग और फिर शामिल हो जाओ छुद्रो और पागलो कि भीड़ में." फिर कोई दर्द नहीं हैं. लेकिन फिर कोई चुनाव भी नहीं हैं. फिर बाहर आने के सारे रास्ते बंद हैं या यूँ कहू कोई रास्ता हैं ही नहीं.
मेरा चुनाव साफ हैं.
अंत में विषय और मन को हल्का करते हुए, एक प्यारा सा SMS काफी दिनों से सहेज कर रखा हुआ था, शेयर करता हूँ. वक्त कि इस करवट जिसका जिक्र मैंने अभी किया हैं, के बारे में भी ये पंक्तिया कुछ कहती हैं. शायद पसंद आये क्योकि मेरे लिए मासूमियत और बचपन परमात्मा का ही रूप हैं, उस पर स्नेह आता ही हैं.

*********बचपन का जमाना होता था.*************
बचपन का जमाना होता था.
खुशियों का खजाना होता था.

चाहत चाँद को पाने की,
दिल तितली का दीवाना होता था.

खबर न थी कुछ सुबह की,
न शाम का ठिकाना होता था.

थक-हार के आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना होता था.

बारिश में कागज की कश्ती थी,
हर मौसम सुहाना होता था.

हर खेल में साथी होते थे,
हर रिश्ता निभाना होता था.

पापा की वो डांटे पड़ती,
पर मम्मी का मनाना होता था.

ग़म की जुबां ना होती थी,
ना जख्मो का पैमाना होता था.

रोने की वजह ना होती थी,
ना हँसने का बहाना होता था.

अब नहीं रही वो जिन्दंगी,
जैसा बचपन का जमाना होता था.

थैंक्स मयूरी पालीवाल, इस SMS को शेयर करने के लिए.

आज इतना ही.
प्यार.
राहुल. 

Sunday, August 15, 2010

आजादी के मायने और असली आजादी.

 हिंदुस्तान एक आज़ाद मुल्क हैं. आखिर क्या हैं ये आज़ादी? हम कुछ भी करे, ये आज़ादी हैं? तो फिर हम आज़ाद हैं. हम वाकई कुछ भी करते हैं. सड़क चलते थूकते हैं. ट्रेन व् स्टेशन गंद्न्गी का साम्राज्य हैं. धर्मस्थल हमने पोलिथिंस से भर दिए हैं और उन्हें किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान में परिवर्तित कर दिया हैं. घर का सारा करकट कूचा पास बहती नदियो में डाल दिया हैं. देश की नसे, हमारी पवित्र नदियो को हमने नाले से भी बदतर बना दिया हैं. पास से गुजरते हुए नाक सिकोड़ना पड़ती हैं.
 
प्रोफेसनिलस्म के नाम पर हम सिर्फ धूर्त व्यवहार करना  सीख चुके हैं. और ये बीमारी सिर्फ महानगरो तक सिमित नहीं, छोटे-छोटे गाँव की बसाहट इससे अब अछूती नहीं रही. लोंगो के आदर्श अब हर रोज अपनी सुविधानुसार परिवर्तित होते हैं. असल बात ये हैं, अब हर जगह छुद्रता हावी हैं. कद बोने हो चुके हैं. कुछ समय पहले बोनसाई वृछ आये थे, अब बोनसाई व्यक्तित्व हैं. अपवादों की कमी नहीं, लेकिन उन्हें भी सिर्फ शिखंडी की तरह रक्छाकवच की तरह उपयोग किया जाता हैं, ताकि परदे के पीछे सारा खेल वही चलता रहे. देश का सत्यानाश करने की अगर बात करे, तो वाकई हम सब आज़ाद हैं.
 
ये जानते हुए भी की, अगला निशाना हम भी हो सकते हैं, हम अपने पड़ोसिओ की मुसीबत के वक्त गाँधी के बन्दर बन जाते हैं. सीधा पूछता हूँ यार, क्या आप अपने पडोसी पर विश्वास करते हैं? या वो आप पर करता हैं? क्या कर रहे हैं ये देखना हो तो किसी भी दिन का समाचार पत्र उठा के देख ले. 
एक अन्दर से कही किसी काहिलता, धुर्तपन ने जकड़ा हुआ हैं. या यु कहे हमारा धीरज, हमारा विवेक नापुशंकता की हद तक पहुच चूका हैं.
 
आज किसी आम आदमी की वो ओकात नहीं रही की वो कोई चुनाव जीतकर सत्ता के नशे में सोये हुए सत्तानशिनो को जगा पाए. उन्होंने पूरा बंदरबाट का इंतजाम किया हुआ हैं. साले, सब आपस में मिले हुए हैं. पूरा बंदोबस्त हैं इस बात का की आम आदमी इसी तरह घिसट-घिसट के जिए.
और लालच, धूर्तता का भी कही अंत नहीं, साले ब्लैक होल की तरह चूस रहे हैं. १०० करोड़, फिर १००० करोड़ चाहिए, फिर १०००० करोड़. कही अंत नहीं. वे भी आज़ाद हैं, लुटने, खसोटने को. हमें भी कुछ आज़ादी दे रखी हैं. मार दो इन्सान को नक्सलवाद के नाम पर. फेंक दो पत्थर अपनी ही सेना पर. तोड़-फोड़ दो सार्वजनिक संपत्ति अपनी भड़ास के निकालने के लिए. और गुस्सा बचा हो तो फेंक तो अपना जूता नेताओ पर. लेकिन फिर जियो वैसे हो घिसट कर. कीड़े की तरह. तुम्हे, "आम आदमी" इतनी ही आज़ादी हैं. जियो ऐसे ही.

तो आम आदमी भी आज़ाद हैं, नेता भी आज़ाद हैं, हिंदुस्तान भी.
फिर आखिर तेरी प्रॉब्लम क्या हैं, मुस्सदी.यह प्रशन सुन फिर नेपथ्य में चला जाता हु.

दुष्यंत फिर याद आते हैं....

मेरे सीने में नहीं तो तेरे  सीने में सही,
हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामे खड़े करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश हैं कि ये सूरत बदलनी चाहिए |

कुछ अपनी बची खुची अशाओ के साथ, आपको असली स्वातन्त्रय मिले, खोया हुआ विवेक मिले, ये शुभकामना करता हूँ.
प्यार,
राहुल 

Sunday, August 1, 2010

नई सुबह का इंतजार.

आज सुबह से अपनी पुरानी जर्जर डायरी के पेज पलट रहा था. गोया अपनी ही जिन्दंगी के बरस पलट रहा था. यांदो की जुगाली सिर्फ सन्डे को ही क्यों होती हैं. क्या हम और दिन विश्रांत होना खो चुके हैं? J.R.D  टाटा साहब को बहुत आदर और प्यार से याद करना चाहूँगा जो इस देश को "खुश" देखना चाहते थे बनाम के देश बहुत बड़ा आर्थिक शक्ति बने. क्या U.S.A.  के आज के हालात इस बारे में कुछ इशारा करते हैं? बहरहाल पारसी व्यक्तित्वों से अपना पुराना प्रेम मैं यहा भी नहीं छुपा पाया. यार, सच कहू. मुझे इन लोगो से प्यार हैं. बड़े गजब के प्यारे लोग हैं ये. इंसानी गुणों की खान. सच पूछो अगर दूसरा जन्म हो (जो मैं चाहता नहीं.) और अगर ईश्वर मुझसे पूछे तो मैं बिना किसी हिचक के पारसी बनना चाहूँगा. 
बहरहाल डायरी के तरफ फिर लौटता हूँ. कुछ पंक्तिया लिखी थी उम्र के उस मक़ाम पर जब मतिभ्रम की धुंध सचाई की किरणों को ढक लेती हैं (अठारह बरस). आज फ्रेंडशिप दिवस पर सोचा शायद वो प्रासंगिक हो, इसलिए यहाँ अभिव्यक्त करता हूँ. 
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*****नई सुबह का इंतजार*****

पास बैठे यार से, किया जब ये सवाल,
क्यों दीखता हैं इन्सान, दुखी  और बेहाल.
क्यों मिलते हैं, गमदास और दुखीराम,
कहाँ गए यार वो, खुशहाल और सुखीराम.
दोस्त जो था चिंतामग्न, बड़ी गंभीरता से बोला,
और ये राज खोला.
बोला- यार, आज गम का फैशन हैं,
हर हँसने वाला पागल, बेशर्म हैं.
हँसाने वाला जब आज अख़बार पड़ता हैं,
तो चिंताए लिए निकलता हैं.
कोई मुस्कराता हैं तो दस टोक देंते हैं,
आज अपने ही अपनों की पीठ में छुरा भोंक देंते हैं.
मुस्कराने वाले से पूछा जाता हैं. "क्या बात हैं? बड़े खुश हो "?,
मानो उन्हें हंसी से परहेज हो.
फिर वे समस्याओ का वास्ता देते हैं,
गुंडागर्दी, हत्या, डकैती, भ्रष्टाचार का कहते हैं,
और इन दुखों के सागर में, उसे भी डुबो देते हैं.
इससे उसको, उससे उसको, यह संक्रामक बीमारी फैलती  जाती हैं,
ग़म बढता और हंसी घटती जाती हैं.
हर कोई नेता, अधिकारी ग़मगीन होना फैशन समझता हैं,
मानो जो जितना ग़मगीन,
काम के प्रति उतना गंभीर,
और उतना ही बड़ा चिन्तनशील.
ये चेहरे पर मुर्दानगी  लिए आते हैं,
खुद दुखी हैं, औरो को भी ग़म दे जाते हैं.
सरकार ने मुस्कराने वालो के लिए सी.बी.आई. और टाडा लगा रखा हैं,
ज्यादा हंसने वालो के लिए, पागलखाना बना रखा हैं.
हर इन्सान आज टूट चूका हैं,
अपनी रवानगी खो चूका हैं.
वह बन गया हैं केवल पैसा कमाने वाली मशीन,
रिश्ते-सवेंदनाये बहुत पीछे छोड़, हो गया हैं मानव से जिन्न.
दोस्त की ये बाते सुन मैं भी ग़म में डूबने लगा,
परन्तु अच्छा तैराक था इसलिए एक ठहाका लगा बच गया.
किन्तु गहरे में कही, दोस्त की इन बातों में सचाई थी,
सच कहने-सुनने  में, आखिर क्या बुराई थी.
सच ही तो हैं हम भूल गए हैं निश्छल हँसना,
हम छोड़ चुके हैं औरो के दिलो में बसना.
भगवन करे फिर दिन लौटे बहार के,
फिर कोई गाये तराने प्यार के,
छल छोड़ फिर आदमी मोहब्बत करे,
दिल के गागर को फिर प्यार से भरे,
हम न खोये अपनी आशाओ को,
क्यों न, नई सुबह का इंतजार करे.
क्यों न .................................

प्यार.
आज इतना ही.  
राहुल

Sunday, July 18, 2010

Difference between a mechanic and a surgeon

A mechanic was removing a cylinder head from the motor of a Harley motorcycle when he spotted a well-known heart surgeon in his shop.
The surgeon was there, waiting for the service manager to come and take a look at his bike.
The mechanic shouted across the garage, "Hey, Doc, can I ask you a question?"

The surgeon a bit surprised, walked over to the mechanic working on the motorcycle. The mechanic straightened up, wiped his hands on a rag and asked, "So Doc, look at this engine. I open its heart, take valves out, fix 'em, put 'em back in, and when I finish, it works just like new. So how come I get such a small salary and you get the really big bucks, when you and I are doing basically the same work?"

The surgeon paused, smiled and leaned over, and whispered to the mechanic... 
"Try doing it with the engine running."


Source: Unknown with thanks!

Thursday, June 10, 2010

3 Stories by a beautiful soul who invented beautiful creations!

Amazing words of Wisdom from the person, to whom about, my thought was "this person has made world more beautiful by creating beautiful stuffs". He is an inventor. He is a creator and so each one of us has potential to be. In his own words what all needed is: "Have courage to follow your heart and intuition."

So here is none other than Steve jobs, who shares 3 stories of his life with us, about:
-Connecting the Dots
-Love and Loss
-Death

I also came across one of the most beautiful definition of death, while listening him.
"Death is very likely the single best invention of Life."

Few other lines which can transform us, are:
"Keep Looking until you find it, Don't settle."
"Your time is limited, so don't waste it living someone else's life."
"You are already naked, so there is no reason not to follow your heart."

Do enjoy this video and lets make This Earth a better place by following your heart and intuition!

Love
Rahul
Save Humanity, Save Earth!

Sunday, June 6, 2010

Do you think Real estate price are sky-rocketing in India and become again unreal? If so, Can we do something?

Real estate prices are again at high. The money you and me put in banks as FD, Banks used that to land to Bhu-Mafias. And this is how they survived and did not lowered the price to sustain. They can have volume and can do the business, but they want Hen itself rather an Egg each day. Actually recession ended too early, otherwise the entire existence of these Mafias must have gone to an end. I am not against this business, but there should be limit of margin and every business must run on ethics.

So the million dollar question is: What we can do or Can we do something at all? Well, let me tell you what I am doing. I am waiting for prices to correct or more precisely I am waiting for a value deal. What else, humm, I am talking to you guys, many friends and other people. And until I found that They too are agree: until this bond of Netas + Mafias + Gundas will break, we will not get real prices of real estate. So answer to question lies on whether this bond will break.

So another option is we can spread message amongst ourselves about this. May be we can have better Ideas too. If you have one then why not to start!  Something like "Jago Re" Advertisement.( hey, this Ad again from Tata tea, a Jem in empire of the Great Ratan Tata and I simple love him and Parsis as community. Why I admire them, You can find the reason which I gave in a comment to a blog. Check comment at end of this blog)

So we can spread awareness and we can support at least morally, people who are doing business with ethics.

What else?, Do Share your view.

The reason I shared my view on real estate is, I came across a latest posting on blog by Motilal Oswal where I shared my concerns with him about Real Estate stocks and their  business ethics. You too can enjoy his words of wisdom at:



Thats it for today.
Love.
Rahul.

Saturday, June 5, 2010

चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये.

सोच रहा हू, क्या बात की जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये.

खूब जमेगा रंग
         बैठेंगे जब हम-तुम संग.
बाते जुबां से नहीं, दिल से निकले
         ऐसे कुछ हालात किये जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये.
सोच रहा हू.............. 

कुछ तू तेरी सुनाना,
        कुछ धुन में मेरी गुनगुनाऊंगा 
काँटों से उलझ चुके बहुत,
         आज  फूलों की बात की जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये.
सोच रहा हू.............. 

कभी कुछ टीस सी उठेगी दिल में.
              कभी आंखे चमक जाएँगी.
जो किया कभी उसकी ख़ुशी,
             जो न कर पाए वो बाते रुलायेंगी.
आंसू, शब्द, यांदो से,
            हर रुकी चीज बह जाएँगी.
 और जब हम तुम हो जायेंगे, पैमाने से खाली,
तेरी-मेरी जीवन मधुशाला में, आनंद-मदिरा बरसात की जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये.
सोच रहा हू.............. 

जाने कब से था तेरा इंतजार.
अब ग़र फिर बिछड़ा तू, जाने फिर कब मिलेगा.
आज ग़र मिल ही गया हैं तू तो.
जी भर के बात की जाये.
आज यही रात की जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये. 
सोच रहा हू.............. 

अब फिर बिछड़े तो,
        मिलने का झूठा वादा न करेंगे.
इतनी बड़ी ये दुनिया तो नहीं,
        कि फिर न मुलाकात करेंगे.
तेरी-मेरी पगडंडिया, राह में ना टकराए तो,
आंसू ना बहाना दोस्त, मंजिल पर ही मुलाकात कि जाये.
तेरी-मेरी जीवन-बूंदों के किस्से खूब सुन लिए, 
               अब सागर से बात कि जाये.
चलो, एक छोटी सी मुलाकात की जाये. 
मन का बुलबुला सोचे, सागर से औकात कि जाये.
सोच रहा हू, क्या बात की जाये....
सोच रहा हू, क्या बात की जाये.......
क्या बात की जाये
बात की जाये
की जाये
जाये
.
अब मैं कहा.
अब बस सागर ही हैं.

आज इतना ही.
प्यार 
राहुल.

Tuesday, June 1, 2010

मकसद ये नहीं कौन मशाल ले मंजिल पे पंहुचा. मायने इस बात के हैं कि वो आग पहुचना चाहिए.

आज के दलदली वक्त में ये चिन्गारिया मौंजू हैं, दुष्यंत की सांसो ने जिन्हें फेफड़ो से रगड़ पैदा किया. मशाल-मेरे तेरे दिल की जला कर औरो तक भी पहुचाना. क्योकि मकसद ये नहीं कौन मशाल ले मंजिल पे पंहुचा. मायने इस बात के हैं कि वो आग पहुचना चाहिए. तो अगर इन्हें पढ कर आग जले तो उसे संभालना और सहेजना, कई लंकाए हनुमान के लिए राह तक रही हैं.

दुष्यंत कुमार की इन चिंगारियों  को उद्घृत करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ.

********हो गयी हैं पीर पर्वत सी ***********
हो गयी हैं पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए |

आज ये दीवार, पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि यह बुनियाद हिलनी चाहियें|

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिए |

सिर्फ हंगामे खड़े करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश हैं कि ये सूरत बदलनी चाहिए |

मेरे सीने में नहीं तो तेरे  सीने में सही,
हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.

---दुष्यंत कुमार.


भटकते भटकते एक सुंदर सी वेब साईट http://www.geeta-kavita.com पर भी पंहुचा, जिनकी राजीव कृष्ण सक्सेना साहब मालकियत रखते हैं. थोडा सा उनकी साईट और उनके सुन्दर से प्रयास के बारे में भी---->Geeta-Kavita is a website devoted to Hindi Literature, especially poetry and contemplations. The site is run by Rajiv Krishna Saxena, a professor of Biology / Immunology at the New Delhi’s Jawaharlal Nehru University, who runs the site because of his interest in promoting Hindi poetry, literature and the Indian thought.

आज इतना ही.
प्यार.
राहुल

Monday, May 17, 2010

कौन हैं वो.



इतनी हंसी इतनी जां ले आए,
               मेरी आवाज़ में, अजान ले आए.
मै भटकता था यांदो में, कल्पनाओ में.
              वो मुझे अभी-आज ले आए.
इतनी हंसी इतनी जां ले आए.
मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

मैं काँटों की राह पे चला था.
              वो गुलाब ले आए.
आँखों मे नींदे ना थी.
              वो मीठे ख्वाब ले आये.
मेरे सुने घर का पता उन्हें किसने दिया.
वे खुशियों की बारात ले आए.
इतनी हंसी, इतनी जां ले आए.
मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

अब ये इन्सान की फितरत हैं.
            पूछेंगे मुझसे कौन हैं वो.
कहूँगा, ताजे फ़ुलो की महक हैं.
            भोर में चिडिया की चहक हैं.
पहली बारिश की मिट्टी की सौंधी खुशबू हैं वो.
           पूनम के चाँद में, नदिया के बीच अस्तित्व का मौन-गीत हैं वो.
किन्तु इन्सान तो इशारे नहीं समझता, 
           ऊँगली पकड़ लेता हैं.
फ़रिश्ते के गुजरने के बाद.
          लकीर को ही ईश्वर समझ लेता हैं.
और फिर चुक जाता हैं,  इस ताजे पल की अस्तितत्वगत-आनंद-अमृत  वर्षा से.  
मेरे जिस्म के मुर्दा मंदिर में जो,
प्राण-प्रतिष्ठा ले आए.
इतनी हंसी, इतनी जां ले आए.
              मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

मै भटकता था यांदो में, कल्पनाओ में.
              वो मुझे अभी-आज ले आए.

Friday, May 14, 2010

माँ.

शायद कोई बेचारा रहा होगा, 
            दुर्भाग्य का मारा ही रहा होगा.
कौन था, मुझसे ये न पूछो,
           हम-तुम में से ही कोई रहा होंगा.
 पहले घर-आंगन छुटा, फिर बातो की गर्माहट ठंडी पड़ी.
          अपने हुए पराये. टूटी फिर स्नेह-प्यार की कड़ी.
क्या क्या उस पर फिर थी गुजरी, क्या क्या फिर छुटा, ये अब न पूछो. 
        किस्सा उसका सुनकर, निर्जल आंखे भी भर आई.
इस बेदर्द ज़माने में अब ये भी है सुनना पड़ा,
         उस ग़रीब के हिस्से में, "माँ" भी नहीं आई.
     उस ग़रीब के हिस्से में, "माँ" .............. माँ.

Monday, May 10, 2010

ये बरस भी बरस ही गया.

ये बरस भी बरस ही गया. क्या भूलू, क्या याद करू. उम्र और वक़्त, ऐसे मक़ाम पर ले जा रही हैं, जहा पिरामिड में ऊपर और साथ, ज्यादा लोग नहीं बचे. गोया कि वो लोग जिनके सरमाये में, मैं खड़ा हो सकू. सब नीचे पिरामिड के लोग हैं जिन्हें बरगद के पेड़ तलाश हैं. आज बरगद के पेड़ का दर्द जान पाया हूँ. सब तो उसके नीचे खड़े हो सकते हैं., लेकिन वो कहा जाये. किससे कहे, कौन सुनेगा, और सुनता कौन हैं. उसकी बैचेनी, अब मेरी बैचेनी हैं. अकेले खड़े होने कि पीड़ा, अब महसूस हो रही हैं. परन्तु इतनी जल्दी होगी, सोचा ना था.
 पानी सिर्फ झीलों, नदियो से नहीं ख़त्म हो रहा हैं. आदमी कि आँखों का भी सुख रहा हैं. ग्लोबल वार्मिंग कही सिर्फ बाहर क़ी नहीं, भीतर क़ी समस्या भी हैं. भीतर क़ी शीतलता सुख गयी है. ये भीतर का मरुस्थल ही तो पेड़ो को काटता हैं, जानवरों को मारता हैं. इसी का दूसरा नाम धूर्तता हैं. धूर्त मानवीयता को मारता हैं.
वो कहते हैं "टाइगर बचाओ", मैं कहता हूँ "मानवीयता बचाओ". ये बच गयी, तो सब बच जायेगा. थोड़ी भीड़ कम करे, थोड़े मानवीय बने.  ताजे बने. जीवंत बने. होशपूर्ण बने.
मुझे लगता हैं, मूल समस्या ये हैं क़ी हमने बाकि सभी चीजो क़ी केंद्र बना लिया हैं और जीवन के मुलभुत तत्व जैसे मानवीयता, दया, प्यार को परिधि पर फेंक दिया हैं. जब तक मुलभुत तत्व जीवन जीने के केंद्र पर नहीं आते, समस्याएं जस क़ी तस ही रहेंगी.
अंत में अस्तित्व से सिर्फ यही प्रार्थना हैं क़ी, अब सिर्फ मानवों से मिलवाना. एक बरगद क़ी तलाश हैं. इस बरस उसकी छाव मिल जाये, इतना पूर्ण हैं. जीवन के केंद्र क़ी तलाश पूरी हो, अस्तित्व से यही प्रार्थना हैं. उस महाशुन्य क़ी कुछ झलक मिल जाये, फिर पूरण परमानन्द ही है. फिर कोई तलाश नहीं.
बीते बरस के लिए, आज इतना ही.

प्यार.

राहुल

एक बसंत और बीता.

एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
कितने शिकवे, कितने गिले.
         कुछ कांटे, कुछ फ़ूल, पीले.
कड़वे अनुभव, कही मुस्कान खिले.
        कुछ अपने बिछड़े, कुछ नये मिले.
कितने नकली, चेहरे उतरे.
        कुछ फ़रिश्ते, भूले बिसरे.
खारे मोती, हँस सा पीता.
         एक बरस ओर मैं, बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
एक बसंत और बीता............

अब क्यों पालू, कुछ नये भ्रम.
        क्या वो धोखे, थे कुछ कम.
वो कड़वे घूंट, वो जहरीले वार.
        इंसानियत मेरी तार तार.
क्यों करू, फिर भरोसा.
        एक ही धर्मं, सिर्फ पैसा?
मानव अब, मानवता से अछुता.
एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता......

अस्तित्व पर, कहा है रुकता. 
        नये पत्ते फिर सृजित करता.
फिर छोटी सी किरण मिल जाती.
        मौत फिर, जिन्दंगी से हार जाती.
संघर्ष मैं छोडूंगा नहीं.
        हार मैं अभी मानूंगा नहीं.
आदमी नहीं, अब मैं बच्चो से मिलता.
        उनसे ही अब जीना, सीखता.
कितने महके, ये कितने ताजे.
        बिन वैभव, राजे महाराजे.
बिन मतलब रिश्ते बनाते.
        प्यार से गले लगाते.
गतली (ग़लती) , पकडे (कपड़े) में तुतलाते.
        हाथी, गाय, पेड़, पानी, तारे बतलाते.
नहीं मतलब, तुम कितने धूर्त.
       ये तो खिलते, स्व- स्फूर्त.
स्वाति के ओंस-कण.
       मिलते जीवन-संजीवनी बन.
क्यों देखू, क्यों तलाशु, खुदा
       वो तो अब इन्ही में मिला.
इनकी हँसी, अल्लाह की नमाज,
       इनकी बातें अब मेरी कृष्ण-गीता.  
एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
एक बसंत अब और बीता.......

Sunday, May 9, 2010

जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं.

जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
रस केवल मधुर ही नहीं, कड़वा भी हो सकता हैं
                           जिन्दंगी मुझे बताती हैं,
इसीलिए ही सफलता के बाद,
                           असफलता का स्वाद भी कराती हैं.
जिन्दंगी कहती हैं, तब ही हैं हँसने का मजा,
                           जब रोने का अनुभव भी हों.
इसीलिए तो कभी कभी,
                           अचानक, यु ही रुला जाती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं................
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
वक़्त की लम्बी राह पर,
                    कोई दे ना दे साथ मगर,
मौत के बुलावे तक,
                     जिन्दंगी साथ निभाती हैं.
राह में ठोकर खिला कर,
                    जिन्दंगी सबक सीखाती हैं,
केवल कांटे ही नहीं हैं, इस बगिया में,
                    ये फ़ूल देकर बताती हैं.
और जब मैं मंजिल को पा,
                    ख़ुशी से रो पड़ता हूँ,
तब जिन्दंगी भी कही दूर खड़ी,
                   मंद मंद मुस्कराती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
सुबह के बचपन, दोपहर की जवानी के बाद,
                           जब जीवन की शाम ढलती हैं,
सुबह एक नये सफ़र का वादा कर,
                          जिन्दंगी अलविदा कह जाती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे.................................... 

Thursday, May 6, 2010

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र, पूछ्ता हैं औरों की.....

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र,
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर.
             नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी ..................

ये मैं जीता हूँ जिन्दंगी को,
       या जिन्दंगी मुझे जी रही हैं.
नहीं पता मुझे,
       किसके हाथ जीवन की डोर.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

एक अबूझ सी पहेली ये जिन्दंगी,
                     यहाँ अनगिनत मोड़.
रफ्ता रफ्ता बीतता मैं,
                     और ये अनजाना सफ़र.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

मैं कौन हूँ, सच, मुझे नहीं पता,
यहाँ हवाओं का जो रुख, वही मेरी दिशा.
ये कौन हैं, जो डरता हैं हर नये पल में,
                     मौत की आहट से.
ये कौन हैं, जो करता हैं,
                    नये का स्वागत.
कैसे कहू सच, मैं - मुझसे नहीं अवगत.
ख़ुद से ही मुलाकात की. कहा अब फ़ुरसत.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र,
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर.

Monday, April 12, 2010

क्या आप मेरा कार्टून "लगा" देंगे?



अपनी चार साल की बेटी को जब चैनल्स की लड़ाई में जब मैने ये कहकर कनविंस करने की कोशिश की, कि ये जो चैनल्स में हॉस्पिटल दिखा रहे है, उस बिजनेस में अगर हम पैसा "लगा" देंगे तो वो दोगुना हो जायेगा. लेकिन मेरी बेटी मुझसे ज्यादा स्मार्ट इन्वेस्टर निकली. उसने डील करने कि कोशिश की., कहा---पापा अगर मै अपने गुल्लक के सारे पैसे "लगा" दूंगी तो क्या आप मेरा कार्टून "लगा" देंगे? मैं लाजवाब था और हमेशा की तरह ये डील (या "दिल" कहे)  भी हार गया.  :)

Wednesday, April 7, 2010

कुछ सवाल जिंदगी से

**********कुछ सवाल जिंदगी से*************
खुद से ही खुद को इतनी गिंला क्यों हैं?
                   यहीं हैं ग़र जिंदगी का तो यूँ सिलसिला क्यों हैं.?
कितना खुबसूरत था आगाज़, ये राह मैं क्या हुआ?
                  रंगबिरंगी सुबह थी, ये दोपहर हो क्या हुआ?
अभी तो थी खुशहाल सी महफ़िल
               अब इतना अकेलापन क्यों हुआ?
भीतर छाया ये मनहूस सन्नाटा क्यों हैं?
यहीं हैं ग़र जिंदगी का तो यूँ सिलसिला क्यों हैं.?
              खुद से ही खुद को इतनी गिंला क्यों हैं?
यहीं हैं ग़र जिंदगी का तो यूँ......................

Sunday, April 4, 2010

तुम मिलों तो सही

तुम मिलों तो सही. अ ग्रेट रिफ्रेशमेंट treat to oneself. मैं उसे *****  रेटिंग देता हूँ. अ must watch फॉर the people who want to have some thing simple, straight, usual and at ground level. मुझे बहुत पसंद आया सुब्बू (नाना पाटेकर) का किरदार. ये किरदार (दलनाज़, फच्छा etc) वैसे ही जिन्दंगी का हिस्सा बन सकते है जैसे बहुत पहले नुक्कड़ के किरदार बने थे.

ये मूवी एक इशारा उधर भी करती है जहा हम अपनी मानवीयता खोकर मशीन बनते जा रहे है. लोग कहते है एक दिन मशीन मानवों पर कब्ब्जा कर लेगी, मै कहता हु वो कब्ब्जा कभी से शुरू हो चुका है. आप किसी माल में जाइये सभी sales person आपको imotionless asnwering machines लगेगी. आप किसी सर्विस provider के कस्टमर केयर को फ़ोन लगाईये, ये सब machines ही है. मुझे आज भी वैसी छोटी सी दुकान पर जाना अच्छा लगता है जिसका मालिक मुझे मानवीय तरीके से व्यव्हार करता हो, जो मेरी पसंद जनता हो. जो मुझे नई आई हुई चीजे अपनी आँखों में एक चमक लाके बताना पसंद करता हो. जो मेरी बच्चे को उनके नाम से जनता हो और उन्हें प्यार देना जनता हो, चाहे एक orange कैंडी देकर ही. और हाँ जो मुझे बिल पे करने के बाद भी बाते करने में इच्छित हो.
यही सभी छोटी छोटी सी बाते मिलकर तो हमारी जिन्दंगी बनती है. और इन्ही चीजो से हम वस्तुत: खुश रहते है और एक स्वस्थ एवं उत्साह भरी लम्बी जिन्दंगी जीते है. यकीन मानिये पैसे से नहीं.

मुझे पारसी भी किसी एक फतासी मूवी की कहानी का मानवीय पात्र लगते है जिनका machines खात्मा करती जा रही है. मानव के मशिनिकरण पर मुझे इक इंग्लिश मूवी THE INVASION याद आती है. तो क्या हम पर भी किसी ALIEN VIRUS ने हमला किया हुआ है. संभावना दिखती तो है आज कल के इंसानों को देखकर.

खैर मुझे पारसी लोगो से बड़ा प्यार है, और मुझे पक्का यकीन है आप भी रतन टाटा को सम्मान और प्यार देते होंगे. ये लोग अभी भी मानवीय है और मुंबई अगर आपको अच्छा लगता है तो उसका इक कारन ये लोग भी है. इन्हे और इनकी संस्कृति/ properties को बचाया जाना चाहिए. आखिर सभी जगह इक माल और concrete का जंगल खड़ा कर के हम अपने आप को ही नष्ट करते है.

तो मेरे/आपके  मोहल्ले./ कॉलेज की काफ़ी-चाय की छोटी सी दुकान की छोटी सी दुनिया से प्रेरित फिल्म  है. "तुम मिलों तो सही".

इशारे और भी कई है लेकिन आज इतना ही सही.


प्यार.
राहुल

Thursday, March 18, 2010

आज फिर पीछे मुड़ देखता हूँ,

आज फिर पीछे मुड़ देखता हूँ,
यांदो के अँधेरे कमरे में कुछ टटोलता हूँ |
दिखाई देते है मुझे, कुछ चेहरे,
जिन्हें वक़्त धूँधलाना चाहता हैं |
पर कैसे भुला दू अपने ही अस्तितत्व के हिस्सों को,
और कैसे बताऊ इस भीड़ को, कि देखा है मैंने उन फरिश्तो को,
सोचता हूँ, रोता हूँ,
आज फिर पीछे मुड़ देखता हूँ,
यांदो के अँधेरे कमरे में कुछ टटोलता हूँ |...
.....................contd.next part soon....
@2010 Rahul Kumar Paliwal. Copy Right Protected. Do not publish without permission.