थोड़ी ऊचाई पर जब,खड़ा होता हूँ मैं.
दिखती हैं मुझे, रेंगती सी भीड़.
जानवरों की नहीं,
तथाकथित मानवों की.
वह भीड़ जिसकी अपनी कोई मंजील नहीं.
न ही कोई दिशा.
एक दुसरे से टकराती जिन्दगिया,
एक दुसरे से आगे निकलने की होड़.
मानव से ही संघर्ष करता मानव.
सोचता हूँ कभी, क्या यही नियति हैं?
जन्म और मृत्यु के बीच सिर्फ संघर्ष ?
एक होड़, अपनों से, अपनों के बीच?
भीड़ कई प्रश्न छोड़ जाती हैं मुझ पर,
परन्तु उत्तर नहीं बताती.
मेरा सरल आत्मा उत्तर पूछती हैं,
भीड़ कहती हैं उत्तर शब्दों में निहित नहीं हैं.
आओ, और शामिल हो जाओ मुझ में तुम भी.
बनो मेरा हिस्सा और गुजरो प्रसव पीड़ा से.
क्योकि हर भीड़ में कुछ बुद्ध उत्तर पा जाते हैं.
फिर वे भीड़ से अलग हो जाते हैं.
जैसे कीचड़ में खिल जाये कोई कमल...
तुम्हे भी यही करना होंगा.
हाँ, मैं भी हूँ अब शामिल इसमे.
अनिच्छा से ही सही, लेकिन संघर्ष करता हुआ अपनों से.
जीता जा रहा हूँ मैं निरंतर,
नदी के बहाव में तिनके की तरह.
कि कभी मिलेंगा उत्तर.
और जान पाउँगा, आखिर कौन हूँ मैं.
लेकिन तब तक मुझे भी इसी भीड़ में जीना हैं.
हाँ, इसी भीड़ में.............................
आज इतना ही,
प्यार
राहुल.
Dated Composed on : 5:50 PM, 5 october, 1999
सुंदर । यह जानने की जिज्ञासा ही जीवन है ।
ReplyDeleteभीड़ में खो जाने का सुख और खतरा दोनो ही है। निर्णय अपना ही है। सुन्दर कविता।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteकहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें
@गजेन्द्र सिंह,@ आशा जी, @राजभाषा हिंदी.....आपके समय एवं होसला- अफजाई का शुक्रिया.
ReplyDelete@प्रवीण भाई: भीड़ के इस दुसरे पहलू कि "खो जाने का सुख भी हो सकता हैं" के बारे में इशारा करने का शुक्रिया. मनोवेज्ञानिक पहलू हें, अकेले होने के. कभी बात कि जाये.