आज सुबह से अपनी पुरानी जर्जर डायरी के पेज पलट रहा था. गोया अपनी ही जिन्दंगी के बरस पलट रहा था. यांदो की जुगाली सिर्फ सन्डे को ही क्यों होती हैं. क्या हम और दिन विश्रांत होना खो चुके हैं? J.R.D टाटा साहब को बहुत आदर और प्यार से याद करना चाहूँगा जो इस देश को "खुश" देखना चाहते थे बनाम के देश बहुत बड़ा आर्थिक शक्ति बने. क्या U.S.A. के आज के हालात इस बारे में कुछ इशारा करते हैं? बहरहाल पारसी व्यक्तित्वों से अपना पुराना प्रेम मैं यहा भी नहीं छुपा पाया. यार, सच कहू. मुझे इन लोगो से प्यार हैं. बड़े गजब के प्यारे लोग हैं ये. इंसानी गुणों की खान. सच पूछो अगर दूसरा जन्म हो (जो मैं चाहता नहीं.) और अगर ईश्वर मुझसे पूछे तो मैं बिना किसी हिचक के पारसी बनना चाहूँगा.
बहरहाल डायरी के तरफ फिर लौटता हूँ. कुछ पंक्तिया लिखी थी उम्र के उस मक़ाम पर जब मतिभ्रम की धुंध सचाई की किरणों को ढक लेती हैं (अठारह बरस). आज फ्रेंडशिप दिवस पर सोचा शायद वो प्रासंगिक हो, इसलिए यहाँ अभिव्यक्त करता हूँ.
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*****नई सुबह का इंतजार*****
पास बैठे यार से, किया जब ये सवाल,
क्यों दीखता हैं इन्सान, दुखी और बेहाल.
क्यों मिलते हैं, गमदास और दुखीराम,
कहाँ गए यार वो, खुशहाल और सुखीराम.
दोस्त जो था चिंतामग्न, बड़ी गंभीरता से बोला,
और ये राज खोला.
बोला- यार, आज गम का फैशन हैं,
हर हँसने वाला पागल, बेशर्म हैं.
हँसाने वाला जब आज अख़बार पड़ता हैं,
तो चिंताए लिए निकलता हैं.
कोई मुस्कराता हैं तो दस टोक देंते हैं,
आज अपने ही अपनों की पीठ में छुरा भोंक देंते हैं.
मुस्कराने वाले से पूछा जाता हैं. "क्या बात हैं? बड़े खुश हो "?,
मानो उन्हें हंसी से परहेज हो.
फिर वे समस्याओ का वास्ता देते हैं,
गुंडागर्दी, हत्या, डकैती, भ्रष्टाचार का कहते हैं,
और इन दुखों के सागर में, उसे भी डुबो देते हैं.
इससे उसको, उससे उसको, यह संक्रामक बीमारी फैलती जाती हैं,
ग़म बढता और हंसी घटती जाती हैं.
हर कोई नेता, अधिकारी ग़मगीन होना फैशन समझता हैं,
मानो जो जितना ग़मगीन,
काम के प्रति उतना गंभीर,
और उतना ही बड़ा चिन्तनशील.
ये चेहरे पर मुर्दानगी लिए आते हैं,
खुद दुखी हैं, औरो को भी ग़म दे जाते हैं.
सरकार ने मुस्कराने वालो के लिए सी.बी.आई. और टाडा लगा रखा हैं,
ज्यादा हंसने वालो के लिए, पागलखाना बना रखा हैं.
हर इन्सान आज टूट चूका हैं,
अपनी रवानगी खो चूका हैं.
वह बन गया हैं केवल पैसा कमाने वाली मशीन,
रिश्ते-सवेंदनाये बहुत पीछे छोड़, हो गया हैं मानव से जिन्न.
दोस्त की ये बाते सुन मैं भी ग़म में डूबने लगा,
परन्तु अच्छा तैराक था इसलिए एक ठहाका लगा बच गया.
किन्तु गहरे में कही, दोस्त की इन बातों में सचाई थी,
सच कहने-सुनने में, आखिर क्या बुराई थी.
सच ही तो हैं हम भूल गए हैं निश्छल हँसना,
हम छोड़ चुके हैं औरो के दिलो में बसना.
भगवन करे फिर दिन लौटे बहार के,
फिर कोई गाये तराने प्यार के,
छल छोड़ फिर आदमी मोहब्बत करे,
दिल के गागर को फिर प्यार से भरे,
हम न खोये अपनी आशाओ को,
क्यों न, नई सुबह का इंतजार करे.
क्यों न .................................
प्यार.
आज इतना ही.
राहुल
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