Sunday, January 27, 2013
तू या मैं?
रोज सबेरे मैं ही तो आता हूँ,
तभी तो होती हैं रौशनी
तुम्हारा अँधेरा हरता हैं।
ये तो तुम्हारी ही समस्या हैं,
तुम चले जाते हो
मंदिर मस्जिद में मुझे खोजने।
और मैं आता हूँ कई भेष लिए
तुम्हारे दरवाजे पर
खटखटाता भी हूँ।
पर तुम विचरते हो
किसी और माया -संसार में।
और फिर तुम नास्तिक बन जाते हो।
कहते हो कि "मैं" मर गया।
हाँ, मैं मरता हूँ हर गुजरे पल में।
लेकिन रहता हूँ, पैदा होता हूँ, हर नए ताजे पल में, मैं ही।
भूतो न भविष्यति।
मैं वर्तमान हूँ।
कुछ भी नाम दे दो मुझे।
मैं प्रार्थना ,मैं ही अजान हूँ।
गीता और कुरान हूँ।
नाद में "हूँ" मैं।
मैं ही अनाद में।
मैं प्रेम में।
नि:छल मुस्कान में।
खोजने की वस्तु नहीं, मैं।
जीने में मिलता हूँ।
मैं वो फ़ूल हूँ,
जहा तुम्हारा, "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।
जहा तुम्हारा "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।
**********************
-आज इतना ही।
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प्रेम, प्रार्थना और ईश्वर, पूर्णतया अन्तर्बद्ध..
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण
ReplyDeleteजब इंसान अपना मैं भूल जाए तब ही उसको पाया जा सकता है .... बहुत सुंदर विचारणीय रचना
ReplyDelete@ जहा तुम्हारा, "मैं" नहीं
ReplyDeleteवही खिलता हूँ।
यही तो हमें समझ नहीं आता ...
यह कौन चित्रकार है ??
thanks Pravin bhai, Poonam ji, Sangita di, Satish Sir!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteऔर कहाँ खोजते हैं हम तुम्हें.......
अनु