"

Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


Protected by Copyscape Online Plagiarism Test

Sunday, January 27, 2013

तू या मैं?


रोज सबेरे मैं ही तो आता हूँ,
तभी तो होती हैं रौशनी
तुम्हारा अँधेरा हरता हैं।

ये तो तुम्हारी ही समस्या हैं,
तुम चले जाते हो
मंदिर मस्जिद में मुझे खोजने।

और मैं आता हूँ कई भेष लिए
तुम्हारे दरवाजे पर
खटखटाता भी हूँ।
पर तुम विचरते हो
किसी और माया -संसार में।

और फिर तुम नास्तिक बन जाते हो।
कहते हो कि "मैं" मर गया।
हाँ, मैं मरता हूँ हर गुजरे पल में।
लेकिन रहता हूँ, पैदा होता हूँ, हर नए ताजे पल में, मैं ही।

भूतो न भविष्यति।
मैं वर्तमान हूँ।
कुछ भी नाम दे दो मुझे।
मैं प्रार्थना ,मैं ही अजान हूँ।
गीता और कुरान हूँ।
नाद में "हूँ" मैं।
मैं ही अनाद में।
मैं प्रेम में।
नि:छल मुस्कान में।
खोजने की वस्तु नहीं, मैं।
जीने में मिलता हूँ।
मैं वो फ़ूल हूँ,
जहा तुम्हारा, "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।

जहा तुम्हारा "मैं" नहीं
वही खिलता हूँ।
**********************
-आज इतना ही।

6 comments:

  1. प्रेम, प्रार्थना और ईश्वर, पूर्णतया अन्तर्बद्ध..

    ReplyDelete
  2. प्रभावपूर्ण

    ReplyDelete
  3. जब इंसान अपना मैं भूल जाए तब ही उसको पाया जा सकता है .... बहुत सुंदर विचारणीय रचना

    ReplyDelete
  4. @ जहा तुम्हारा, "मैं" नहीं
    वही खिलता हूँ।

    यही तो हमें समझ नहीं आता ...
    यह कौन चित्रकार है ??

    ReplyDelete
  5. thanks Pravin bhai, Poonam ji, Sangita di, Satish Sir!

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर.....
    और कहाँ खोजते हैं हम तुम्हें.......

    अनु

    ReplyDelete

Do leave your mark here! Love you all!