मुनव्वर जैसे बड़े शायरों को जब भी सुना, लिखे बिन रहा नहीं गया. ये वो पीर हैं जो सीधा उससे जोड़ते हैं. और जब आप उससे जुड़ते हैं तो, फिर आप, आप नहीं होते. वो ही होता हैं. समंदर से मिल कर बूँद की फिर क्या औकात।
उन्हों पलो वो होता हैं, जो एक हाड़ मांस का पुतला नहीं कर सकता। कुछ अनोखा, कुछ बिलकुल अनदेखा-अनसुना। बाकि सब नक़ल हैं, कूड़ा हैं.
कुछ नई पंक्तिया प्रस्तुत हैं.
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मुझ माझी को कब किनारे मिले
तुझ को भी क्या, मुझसे बेचारे मिले?
जिन आँखों से थी, मुझे मय दरकार,
रेगिस्ता वहा हज़ारो मिले।
मुझ माझी को कब किनारे मिले!
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मैं प्यासा ही रहा, मुझे समन्दर नसीब हुए.
वो पास रह कर भी, कब करीब हुए.
सब कहते हैं, उन्हें उनका प्यार मिला।
मेरे साथ ही क्या, ये किस्से अजीब हुए?
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उसके प्यार से खिलाये अधपके रोट, अच्छे लगे.
मेरा क़ातिल मुझ से बिछुड़ के रोया जो आज, आंसू उसके, सच्चे लगे.
दामन फैला के मैंने अपना, आसमां से जो देखा आज.
भीड़ में लड़ते-भागते , बड़े बड़े, सब बच्चे लगे.
बड़े बड़े, सब बच्चे लगे.
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आज इतना ही.