नए ज़माने के नए दस्तूर होते हैं..
सही-गलत छोड़, उन्हें मंजूर होते हैं..
वो तरक्कीपसंद कहलाते हैं, जो बेच देते हैं ज़मीर अपना।
सुना हैं आजकल वही हुजूर होते हैं...
नए ज़माने के नए दस्तूर होते हैं..
हम जैसो को कब मंजूर होते हैं.
ज़मीर जो बेचा, तो फिर क्या बचा.
हम अपनी सनक के लिए मशहूर होते हैं.
नए ज़माने के नए दस्तूर होते हैं..
हम जैसो को कब मंजूर होते हैं.
Friday, February 7, 2014
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नया जमाना है, संभलकर चलें।
ReplyDeleteहै तो सही !
ReplyDeleteशुभकामनायें !!