"फिर छिड़ी रात बात फूलों की" । रेडियो पर सायमा RJ Sayema ने जब ये गाना बजाया, मेरे तो सारे तार बज से गए.।
फारूक साहब चले गए. उनकी अदायगी एक ठहराव देती थी. मानो समय इसी पल में जम गया हो. आज तकनीक तो बहुत उन्नत हैं, लेकिन अदाकारों में एक जल्दीबाजी सी लगती हैं. एक दौड़ जो पहुचाती कही नहीं। सोने पे सुहागा मुहावरा अपना अर्थ पाता हैं, जब जगजीत & तलत अज़ीज़, फारूक के लिए गाते हैं। मानो एक ठहराव दूसरे कि तलाश में निकला था और वो पूरी हुई.
सायमा ने दीप्ती जी बात की. बहुत बहुत गहरी उदासी थी. जिंदगी का आधा हिस्सा अचानक अलग हो जाये, तो फिर आधे बचे का क्या वजूद। बातो के दौरान ही यह बात निकल कर आई कि, फारूक साहब को पोएट्री , उर्दू शायरी का काफी शौक था. और इसे मै साहित्य & समाज की बहुत बड़ी क्षति कहूंगा कि, फारूक साहब शायरी पर ही एक बहुत खूबसूरत प्रोग्राम लेकर आने वाले थे. और ख़ुदा से ये गुनाह हो गया.
वो संजीदगी, ठहराव, एक तीव्र गहरापन। जिंदगी अपने मायने पाती थी और इसीलिए मासूमियत, भोलापन, सहजता & स्नेह के दैवीय गुण तब के इंसानो में होते थे. अब? बोन्साई, उथलापन, भीड़ & एक अंधी दौड़. सब दौड़ रहे, पहुच कोई नहीं रहा.
ख़ुदा उन्हें जन्नत नसीब करे.उस "ठहराव" को सुनते हैं.
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फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात हैं या बरात फूलों की
फुल के हार, फुल के गजरे
शाम फूलों की, रात फूलों की
आप का साथ, साथ फूलों का
आप की बात, बात फूलों की
फुल खिलते रहेंगे दुनियाँ में
रोज निकलेगी, बात फूलों की
नज़ारे मिलती है, जाम मिलते है
मिल रही है, हयात फूलों की
ये महकती हुयी गज़ल मखदूम
जैसे सेहरा में, रात फूलों की
Tuesday, December 31, 2013
फ़ारूक शेख: ठहराव और संजीदगी.
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