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Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


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Monday, May 17, 2010

कौन हैं वो.



इतनी हंसी इतनी जां ले आए,
               मेरी आवाज़ में, अजान ले आए.
मै भटकता था यांदो में, कल्पनाओ में.
              वो मुझे अभी-आज ले आए.
इतनी हंसी इतनी जां ले आए.
मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

मैं काँटों की राह पे चला था.
              वो गुलाब ले आए.
आँखों मे नींदे ना थी.
              वो मीठे ख्वाब ले आये.
मेरे सुने घर का पता उन्हें किसने दिया.
वे खुशियों की बारात ले आए.
इतनी हंसी, इतनी जां ले आए.
मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

अब ये इन्सान की फितरत हैं.
            पूछेंगे मुझसे कौन हैं वो.
कहूँगा, ताजे फ़ुलो की महक हैं.
            भोर में चिडिया की चहक हैं.
पहली बारिश की मिट्टी की सौंधी खुशबू हैं वो.
           पूनम के चाँद में, नदिया के बीच अस्तित्व का मौन-गीत हैं वो.
किन्तु इन्सान तो इशारे नहीं समझता, 
           ऊँगली पकड़ लेता हैं.
फ़रिश्ते के गुजरने के बाद.
          लकीर को ही ईश्वर समझ लेता हैं.
और फिर चुक जाता हैं,  इस ताजे पल की अस्तितत्वगत-आनंद-अमृत  वर्षा से.  
मेरे जिस्म के मुर्दा मंदिर में जो,
प्राण-प्रतिष्ठा ले आए.
इतनी हंसी, इतनी जां ले आए.
              मेरी आवाज़ में अजान ले आए....

मै भटकता था यांदो में, कल्पनाओ में.
              वो मुझे अभी-आज ले आए.

Friday, May 14, 2010

माँ.

शायद कोई बेचारा रहा होगा, 
            दुर्भाग्य का मारा ही रहा होगा.
कौन था, मुझसे ये न पूछो,
           हम-तुम में से ही कोई रहा होंगा.
 पहले घर-आंगन छुटा, फिर बातो की गर्माहट ठंडी पड़ी.
          अपने हुए पराये. टूटी फिर स्नेह-प्यार की कड़ी.
क्या क्या उस पर फिर थी गुजरी, क्या क्या फिर छुटा, ये अब न पूछो. 
        किस्सा उसका सुनकर, निर्जल आंखे भी भर आई.
इस बेदर्द ज़माने में अब ये भी है सुनना पड़ा,
         उस ग़रीब के हिस्से में, "माँ" भी नहीं आई.
     उस ग़रीब के हिस्से में, "माँ" .............. माँ.

Monday, May 10, 2010

ये बरस भी बरस ही गया.

ये बरस भी बरस ही गया. क्या भूलू, क्या याद करू. उम्र और वक़्त, ऐसे मक़ाम पर ले जा रही हैं, जहा पिरामिड में ऊपर और साथ, ज्यादा लोग नहीं बचे. गोया कि वो लोग जिनके सरमाये में, मैं खड़ा हो सकू. सब नीचे पिरामिड के लोग हैं जिन्हें बरगद के पेड़ तलाश हैं. आज बरगद के पेड़ का दर्द जान पाया हूँ. सब तो उसके नीचे खड़े हो सकते हैं., लेकिन वो कहा जाये. किससे कहे, कौन सुनेगा, और सुनता कौन हैं. उसकी बैचेनी, अब मेरी बैचेनी हैं. अकेले खड़े होने कि पीड़ा, अब महसूस हो रही हैं. परन्तु इतनी जल्दी होगी, सोचा ना था.
 पानी सिर्फ झीलों, नदियो से नहीं ख़त्म हो रहा हैं. आदमी कि आँखों का भी सुख रहा हैं. ग्लोबल वार्मिंग कही सिर्फ बाहर क़ी नहीं, भीतर क़ी समस्या भी हैं. भीतर क़ी शीतलता सुख गयी है. ये भीतर का मरुस्थल ही तो पेड़ो को काटता हैं, जानवरों को मारता हैं. इसी का दूसरा नाम धूर्तता हैं. धूर्त मानवीयता को मारता हैं.
वो कहते हैं "टाइगर बचाओ", मैं कहता हूँ "मानवीयता बचाओ". ये बच गयी, तो सब बच जायेगा. थोड़ी भीड़ कम करे, थोड़े मानवीय बने.  ताजे बने. जीवंत बने. होशपूर्ण बने.
मुझे लगता हैं, मूल समस्या ये हैं क़ी हमने बाकि सभी चीजो क़ी केंद्र बना लिया हैं और जीवन के मुलभुत तत्व जैसे मानवीयता, दया, प्यार को परिधि पर फेंक दिया हैं. जब तक मुलभुत तत्व जीवन जीने के केंद्र पर नहीं आते, समस्याएं जस क़ी तस ही रहेंगी.
अंत में अस्तित्व से सिर्फ यही प्रार्थना हैं क़ी, अब सिर्फ मानवों से मिलवाना. एक बरगद क़ी तलाश हैं. इस बरस उसकी छाव मिल जाये, इतना पूर्ण हैं. जीवन के केंद्र क़ी तलाश पूरी हो, अस्तित्व से यही प्रार्थना हैं. उस महाशुन्य क़ी कुछ झलक मिल जाये, फिर पूरण परमानन्द ही है. फिर कोई तलाश नहीं.
बीते बरस के लिए, आज इतना ही.

प्यार.

राहुल

एक बसंत और बीता.

एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
कितने शिकवे, कितने गिले.
         कुछ कांटे, कुछ फ़ूल, पीले.
कड़वे अनुभव, कही मुस्कान खिले.
        कुछ अपने बिछड़े, कुछ नये मिले.
कितने नकली, चेहरे उतरे.
        कुछ फ़रिश्ते, भूले बिसरे.
खारे मोती, हँस सा पीता.
         एक बरस ओर मैं, बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
एक बसंत और बीता............

अब क्यों पालू, कुछ नये भ्रम.
        क्या वो धोखे, थे कुछ कम.
वो कड़वे घूंट, वो जहरीले वार.
        इंसानियत मेरी तार तार.
क्यों करू, फिर भरोसा.
        एक ही धर्मं, सिर्फ पैसा?
मानव अब, मानवता से अछुता.
एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता......

अस्तित्व पर, कहा है रुकता. 
        नये पत्ते फिर सृजित करता.
फिर छोटी सी किरण मिल जाती.
        मौत फिर, जिन्दंगी से हार जाती.
संघर्ष मैं छोडूंगा नहीं.
        हार मैं अभी मानूंगा नहीं.
आदमी नहीं, अब मैं बच्चो से मिलता.
        उनसे ही अब जीना, सीखता.
कितने महके, ये कितने ताजे.
        बिन वैभव, राजे महाराजे.
बिन मतलब रिश्ते बनाते.
        प्यार से गले लगाते.
गतली (ग़लती) , पकडे (कपड़े) में तुतलाते.
        हाथी, गाय, पेड़, पानी, तारे बतलाते.
नहीं मतलब, तुम कितने धूर्त.
       ये तो खिलते, स्व- स्फूर्त.
स्वाति के ओंस-कण.
       मिलते जीवन-संजीवनी बन.
क्यों देखू, क्यों तलाशु, खुदा
       वो तो अब इन्ही में मिला.
इनकी हँसी, अल्लाह की नमाज,
       इनकी बातें अब मेरी कृष्ण-गीता.  
एक बसंत और बीता.
उम्र का प्याला और रीता.
एक बसंत अब और बीता.......

Sunday, May 9, 2010

जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं.

जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
रस केवल मधुर ही नहीं, कड़वा भी हो सकता हैं
                           जिन्दंगी मुझे बताती हैं,
इसीलिए ही सफलता के बाद,
                           असफलता का स्वाद भी कराती हैं.
जिन्दंगी कहती हैं, तब ही हैं हँसने का मजा,
                           जब रोने का अनुभव भी हों.
इसीलिए तो कभी कभी,
                           अचानक, यु ही रुला जाती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं................
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
वक़्त की लम्बी राह पर,
                    कोई दे ना दे साथ मगर,
मौत के बुलावे तक,
                     जिन्दंगी साथ निभाती हैं.
राह में ठोकर खिला कर,
                    जिन्दंगी सबक सीखाती हैं,
केवल कांटे ही नहीं हैं, इस बगिया में,
                    ये फ़ूल देकर बताती हैं.
और जब मैं मंजिल को पा,
                    ख़ुशी से रो पड़ता हूँ,
तब जिन्दंगी भी कही दूर खड़ी,
                   मंद मंद मुस्कराती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
 
सुबह के बचपन, दोपहर की जवानी के बाद,
                           जब जीवन की शाम ढलती हैं,
सुबह एक नये सफ़र का वादा कर,
                          जिन्दंगी अलविदा कह जाती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे हर अनुभव देना चाहती हैं,
इसीलिए ही छाँव के बाद, कड़ी धुप का अहसास कराती हैं.
जिन्दंगी तू शायद मुझे.................................... 

Thursday, May 6, 2010

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र, पूछ्ता हैं औरों की.....

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र,
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर.
             नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी ..................

ये मैं जीता हूँ जिन्दंगी को,
       या जिन्दंगी मुझे जी रही हैं.
नहीं पता मुझे,
       किसके हाथ जीवन की डोर.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

एक अबूझ सी पहेली ये जिन्दंगी,
                     यहाँ अनगिनत मोड़.
रफ्ता रफ्ता बीतता मैं,
                     और ये अनजाना सफ़र.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

मैं कौन हूँ, सच, मुझे नहीं पता,
यहाँ हवाओं का जो रुख, वही मेरी दिशा.
ये कौन हैं, जो डरता हैं हर नये पल में,
                     मौत की आहट से.
ये कौन हैं, जो करता हैं,
                    नये का स्वागत.
कैसे कहू सच, मैं - मुझसे नहीं अवगत.
ख़ुद से ही मुलाकात की. कहा अब फ़ुरसत.
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर...............

नाजुक दौर, और ये जिन्दंगी का सफ़र,
पूछ्ता हैं औरों की, हमें अपनी ना खबर.