गाँव होने से मेरा मतलब
नग्न निर्लल्ज सन्नाटे से नहीं था
न ही उसे ढकने के लिए
सामूहिक शर्म डीजे के शोर से था
गाँव होने का रूपक
कभी धड़कन सुनाई देने वाली शांति हुआ करती थी
तभी तो अंदर की आवाज़ साफ आती थी
और वो साफगोईता
नीम के पेड़ के निचे बैठे
कड़कदार बूढ़े में झलकती थी।
और उस शीतल शांति को
कभी कोयल
और चिरैया
मधुर बनाती थी।
कानो में अमृत टपकता था
ऐसे ही कोई
९० -१०० साल नहीं जीता था
गाँव में.
कभी गाँव में हम बसते थे
अब ?
अब गाँव हमारी
स्मृतियों में।
राहुल भाऊ खूप छान लिहितात तुम्ही👍👍👍👌👌👌👌
ReplyDeleteगाँव होने का रूपक
ReplyDeleteकभी धड़कन सुनाई देने वाली शांति हुआ करती थी
तभी तो अंदर की आवाज़ साफ आती थी
और वो साफगोईता
नीम के पेड़ के निचे बैठे
कड़कदार बूढ़े में झलकती थी।
बहुत सटीक
अब गांव को भी नज़र शहर के लग गई