तुम किनारे पर मूक दर्शक बनके
ये मत सोचना
की बीच नदी मे
निरीहता को बचाते
थपेड़ो से
सिर्फ मै मारा जाऊंगा
या किसी भीड़ सड़क पर
गुंडे के वॉर से
फिर किसी निरीहता को बचाते
मै चाकू के घाव झेलूँगा
और तुम जॉम्बीज़ से मदद मांगने की बजाये
मर जाना पसंद करूँगा
मै तो शारीरिक रूप से चला जाऊंगा
पर तुम जो मरोगे ना
उसे तुम्हारी सभ्यता
कुत्ते की मौत बोलती है
अंदर से सड़ोगे
गलोगे
बदबू छोड़ोगे
भीतर की आवाज़
और जमीर को मारकर
यही अंजाम होगा
और चिल्लाओगे
नींद में
वो जो लसकते हुए भीख मांगकर
तुमने कर्ज लिया जीने का
उसका एक एक पाई
का हिसाब होगा।
प्रकृति की बैलेंस शीट में
अन्तत: सब बराबर होता है
तुम किनारे पर मूक दर्शक बनके
ये मत सोचना
सिर्फ मै मारा जाऊंगा।
सच जिसकी मानवता मर जाय वह इंसान कहलाने लायक नहीं, वह जिन्दा लाश ही होगी जिंदगी में
ReplyDeleteप्रेरक मर्मस्पर्शी रचना
Thanks Kavita ji! Empathy is damn human quality.
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