Friday, March 29, 2013
मेरे आंसू - तेरे दोहे.
शुक्रगुजार हूँ, निदा साहब का। अलसुबह देखे एक ख्वाब का, सुबह पानी पिने आई गौरेया का। सुबह से ही सावन बरस रहा हैं। और रिमझिम नहीं, धुआधार बरस रहा हैं। बाबा कबीर कह ही गए हैं, "कबहि कहु जो मैं किया, तू ही था मुझ माहि।" तो कुछ दोहे भी कागज पर स्याह बन उतर आये।
दर्द और आंसुओ का अस्तित्व से सीधा संवाद होता हैं। कोई मीडिएटर नहीं चाहिए। लेकिन उसके लिए एक गहरी सवेंदंशिलता चाहिए। आज सवेंदना सरस्वती के सामान सुख गई हैं, और इश्वर मर चूका हैं, का उदघोष-सन्देश समाज साफ साफ़ दे रहा हैं। तो बात सीधी हैं, अब उसे किसी बोद्धिक सम्भोग की चाह में , जटिल किया जाये, तो परिणाम भी अनसुलझा छिन्न भिन्न समाज होगा।
खैर। फिर से शुक्रिया, उन बादलो का जो सावन लेके आये।
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थोडा नमकीन पानी और फिर बची राख।
साहूकार ने लगाया, जब आदम का हिसाब।
हिसाब किताब में कब समाया तेरे मेरा प्यार।
साहूकार चूक गया, यादे - सांसे - वक्त- गर्मी - ख्वाब।
खुदा तेरी इक दुनिया हैं, एक मेरी भी दुनिया हैं।
तेरी दुनिया भय की, मेरा, प्यार रुआब।
किसने बनाये परिंदे, ये जंगल, जानवर, पानी।
किसी किसी आदम को ही मिलता, इन्सां का ख़िताब।
पीने वाले मधुशाला जाने, पढने वाले पढ़ पाते हैं,
एक खारा - खरा -गीला पन्ना, मेरी जीवन कोरी किताब।
थोडा नमकीन पानी और फिर बची राख।
साहूकार ने लगाया, जब आदम का हिसाब।
-आज इतना ही।
Monday, March 11, 2013
पानी केरा बुलबुला
निर्गम अनजान बीहड़ में कही
एक अनघड जंगली फ़ूल
सोचता हूँ कितनी होंगी
उसकी महत्वकांछाये!
अरबो की भीड़ में
मिटटी का पुतला, अदना इन्सान
अगले पल एक मांस पेशी धडकी
साँस आई और गई, तो जिया।
फिर भी कितने सपने
कितनी आकांछाये !
दोनों दो पल के।
फिर गिर जाना हैं।
आदम क्यों नहीं समझता
उसे भी जाना हैं।
विडम्बना ये हैं
मुरझाने से पहले
वो फूल तो खिलता हैं।
महकता हैं।
सार्थक होता हैं
किन्तु जाने से पहले
आदम, इन्सान नहीं बन पाता हैं।
दुसरे की आँखों से जीता
क्यों नहीं खिल पाता हैं।
नम पलके लिए, सोचता हूँ.
आदम, क्यों नहीं खिल पाता हैं।
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