"

Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


Protected by Copyscape Online Plagiarism Test

Sunday, September 19, 2010

वक्त की अप्रत्याशित करवट और मेरी झुंझलाहट: बाज़ार की ताकते और कुछ कटु असहज सत्य.

प्रीतिश नंदी के लेख (एक नाकाम पिता) पढने के बाद, मन भारी सा हो गया था. आखिर दुखती रग पर हाथ जो रख दिया गया. जो कटु अनुभव उन्होंने बांटे, उन्ही से मैं भी बैचेन और आहत हूँ.
चिंतित हूँ, बाज़ार की बढ़ती ताकतों से और हैरान हूँ बड़े कदों की छुद्रता से. और ये नपुंसक बातें नहीं हैं मेरे कटु अनुभव हैं. शिखरों ने अपनी छुद्रता से सन्न किया हैं मुझे. कई अनुभव हैं. किस्से सुनाने का शायद यह सही वक्त नहीं होगा, लेकिन मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ, जिसने मेरी और मेरे परिवार की हर मदद का प्रतिफल छुरा भोक कर किया. और यहाँ मैं ये भी बता दू की मैं किसी सड़क चलते की बात नहीं कर रहा हूँ. मैं बात कर रहा हूँ उस परिवार की जो अपने आप को सभ्य कहता हैं, शिक्षावान समझता हैं और परिवार का मुखिया एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे खासे ओहदे पर हैं. परन्तु मानवीयता के किसी गुण (दया, स्नेह, मदद, मासूमियत, दोस्ती, रिश्ते और उसकी गर्माहट.) पर पूरा परिवार भयानक रूप से गरीब हैं. गरीब कहना भी शायद किसी  गरीब की बेज्जती होगी.क्योकि ये गरीबी बाहरी नहीं हैं, ये आन्तरिक हैं. निर्धन इन्सान को भी मैने किसी धनवान से अमीर पाया हैं. बहरहाल ये पूरा परिवार एक ही भाषा समझता हैं, जो आज बाज़ार की भाषा हैं. वो भाषा हैं- पैसो की भाषा.
 मेरे संस्कार और अनुभव से परे लोग हैं ये. और मुझे आज भी ये समझने में दिक्कत होती हैं कि कोई कैसे मदद का प्रतिफल चांटा मार के कर सकता हैं? तो एक तरीके से मेरे लिए ये एक कल्चरल शॉक था. किन्तु दुःख कि और बात ये थी कि, वो अपने बच्चो को भी उनकी मासूमियत छीन कर वही घिनोनापन सिखा रहे हैं. और मेरी परेशानी ये होती हैं कि क्या मैं अपने बच्चो को भी वही मानवीय गुण सिखाऊ जो मैने अपने संसकारों में पाए थे, और जो अब व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं, क्योकि उन्हें भी तो वैसे ही लोगो का सामना कर पड़ सकता हैं जो वो परिवार तैयार कर रहा हैं. एक गहन बैचेनी अन्दर कही सिलती हैं. और किस्से कहू, सुनता कौन हैं.
बाज़ार कि ताकते पूरी तरह हावी हैं, और जो बिकता हैं, बस वही सही हैं. बस एक यही प्रतिमान बचा हैं, गलत और सही के भेद का अब तो.
एक कॉर्पोरेट ट्रेनिंग में था, ट्रेनर ने कहा: "गये वो दिन जब कोई चीज ईमानदारी होती थी". और मेरे अधिकतर साथी सहमत दिखे. ये शुन्यता देख निराशा हुई. "कुए में भांग वाली" वाली कहावत और किस्सा याद आता हैं. गोया कि अब दो ही चुनाव हैं, या तो "दर्द सहो और कोशिश करते रहो." रविंद्रनाथ के "एकला चलो रे" कि तरह, या फिर "पियो भांग और फिर शामिल हो जाओ छुद्रो और पागलो कि भीड़ में." फिर कोई दर्द नहीं हैं. लेकिन फिर कोई चुनाव भी नहीं हैं. फिर बाहर आने के सारे रास्ते बंद हैं या यूँ कहू कोई रास्ता हैं ही नहीं.
मेरा चुनाव साफ हैं.
अंत में विषय और मन को हल्का करते हुए, एक प्यारा सा SMS काफी दिनों से सहेज कर रखा हुआ था, शेयर करता हूँ. वक्त कि इस करवट जिसका जिक्र मैंने अभी किया हैं, के बारे में भी ये पंक्तिया कुछ कहती हैं. शायद पसंद आये क्योकि मेरे लिए मासूमियत और बचपन परमात्मा का ही रूप हैं, उस पर स्नेह आता ही हैं.

*********बचपन का जमाना होता था.*************
बचपन का जमाना होता था.
खुशियों का खजाना होता था.

चाहत चाँद को पाने की,
दिल तितली का दीवाना होता था.

खबर न थी कुछ सुबह की,
न शाम का ठिकाना होता था.

थक-हार के आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना होता था.

बारिश में कागज की कश्ती थी,
हर मौसम सुहाना होता था.

हर खेल में साथी होते थे,
हर रिश्ता निभाना होता था.

पापा की वो डांटे पड़ती,
पर मम्मी का मनाना होता था.

ग़म की जुबां ना होती थी,
ना जख्मो का पैमाना होता था.

रोने की वजह ना होती थी,
ना हँसने का बहाना होता था.

अब नहीं रही वो जिन्दंगी,
जैसा बचपन का जमाना होता था.

थैंक्स मयूरी पालीवाल, इस SMS को शेयर करने के लिए.

आज इतना ही.
प्यार.
राहुल. 

2 comments:

  1. आपके विचार पढ़के बहुत अच्छा लगा| ऐसे सोचनेवाले बहुत कम लोग इस दुनिया में है| बाकि लोग सब देखके इग्नोअर कर देते है| चलता है चलने दो टाइप बर्ताव|
    ऐसेही लिखते रहो, शायद कुछ लोग सोचना भी शुरू कर दे| ये चर्चा जारी रहनी चाहिए| ताकि लोगों को एहसास रहे की कुछ तो गलत हो रहा है यहाँ|
    क्या हम सब globalization के शिकार है? क्या मनमोहन सिंघजी ने यह सब सोचा होगा १९९१ में? के जीडीपी बढेगा लेकिन नैतिकता गिरेगी इस देश में? एक सतह पे जहाँ से वोह कभी ऊपर नहीं उठ सकती ...

    ReplyDelete
  2. रोहित भाई, आपके विचार, होसला अफ़जाई , समय और चिंतन के लिए शुक्रिया. अपने सही फरमाया, क्या कोई रिश्ता हैं, वैश्वीकरण और नैतिकता का, मानवीयता का. समाजशास्त्रियो के लिए शोध का विषय हो सकता हैं. मेरी पीढ़ी अपने आपको दो भागो में बटा पाती हैं. १९९१ से पहले, और बाद. एक पूरे संक्रमण के समय से गुजरे हैं, हम लोग. मन मोहन सिंह जी इस परिवर्तन के पुरोधा हैं, लेकिन मुझे लगता हैं कुछ सावधानिया अनिवार्य थी, और वे एक भद्र इन्सान की तरह इस पर पूर्ण मौन हैं. शिखर पर ये शुन्य बर्दाश्त नहीं होता. परिवर्तन स्वीकार्य हैं लेकिन खुले दिमाग के साथ. मेरे हिसाब से GDP के साथ happyness index का भी ख्याल रखा जाना चाहिए. या यूँ कहू पहले happyness इंडेक्स, बॉस. और ये बात मेरे जैसा अदना इन्सान तो शिद्दत के साथ महसूस करता ही हैं, मेरे आदर्श JRD टाटा साहब पहले ही कह गए हैं. वैसे इन्सान अब देखने को नहीं मिलते, जाने कहा गए वो लोग. विश्वास नहीं होता, उधम सिंह जैसे जस्बे वाले लोग इस धरती पे हुए हैं, जिन्हें ये बर्दाश्त नहीं हुआ की कोई कीड़े मकोड़े की तरह ख़त्म कर दे लोगो को, डायर को उसका सबक, उस के घर पर जा सिखाया.
    नैतिकता और ईमानदारी की तो बात ही क्या, सही कहा आपने GDP बढ़ने के साथ ये गिरते जा रहे हैं. मुझे एक बड़ा कारण इसका आबादी लगता हैं. मन मोहन सिंह जी और अर्थशाश्त्रिजन आबादी का GDP , कंसप्शन से नाता तो जोड़ लेते हैं, लेकिन happyness इंडेक्स के बारे में खामोश हैं. कही न कही आज की अन्य समस्यायों जैसे नक्सलवाद, माओवाद का इनसे गहरा सम्बन्ध हैं.
    शुरुआत आप हम जैसे लोगो को भी करना होंगी, चाहे वो "राम सेतु" में गिलहरी के योगदान जैसा ही हो. ये सूरत बदलनी ही चाहिए.
    आप जैसे Humanaire™ ही अंतिम आशा हैं. कोशिश जारी रखे, जागते रहो.

    ReplyDelete

Do leave your mark here! Love you all!