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Save Humanity to Save Earth" - Read More Here


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Wednesday, February 15, 2023

गिरगिट

दिन के आखिर में 

नींद के आग़ोश में 

अपने को छोड़ देने से ठीक पहले

जिंदगी जो सवाल करती है 

उनके जवाब देने की क़ाबलियत 

तुम्हारी असली कहानी बताती है 


बाकि सब कुछ तुम 

अच्छे से छुपा भी लेते हो 

और पचा भी। 

रोज नए चेहरे भी 

लगा लेते हो 


आदमी उन जवाबो तक पहुंचने 

के संघर्ष 

और घावों 

के बिना 

गिरगिट बन ही जीता है।  

Monday, September 12, 2022

प्रश्न

कभी कभी सोचता हूँ 

अगर 

हम सब 

मर जायेगे 

तो 

भगवान!!!,

क्या होगा?

या 

भगवान का 

क्या होगा?

कौन सा प्रश्न 

मुझे 

इंसान होने के 

और करीब 

ले जाता है ?

Monday, August 1, 2022

लोकतंत्र के अंकुश

 डर हमेशा ही एक हव्वा होता है, एक ४००० किलो का हाथी सिर्फ ३ फ़ीट की अंकुश से अनुशासित होता है। लोकतंत्र में ये अंकुश विपक्ष , न्यायपालिका और पत्रकारिता होती है. अब जब के इन तीनो को लगभग न्यून कर दिया गया हो, गेंद जनता की पाली में गिर चुकी है। लेकिन जनता की आवाज़ आखिर कौन होता है ?


लोकतंत्र में साहित्य को ये आखिरी जिम्मेदारी मिलती है, विशेषत व्यंग विधा को। जनता की वो आवाज़ बनने की जो किसी तानाशाह के कानो को चीर वहाँ पहुँचती है, जहाँ कोई न्यूरॉन अधिकतम दर्द पैदा करता है।  


एक हरिशंकर परसाई या शरद जोशी सत्ता के घमंड रूपी गुब्बारे की हवा निकालने के लिए काफी है, समाज के गर्भ में लेकिन वैसा व्यक्तित्व पैदा करने की ताकत अब ना रही। ये दौर अंधेर नगरी , चौपट राजा का दौर है. जागते रहो। 

Sunday, April 17, 2022

एक दोस्त का होना

जिंदगी का एक गणित

समझते समझते 

इतनी देर हो जाती है कि 

दुनिया अक्सर हमें 

इंसान से पहले 

क्या क्या बना जाती है  


जबकि जब भी एक दोस्त साथ होता है 

तो हम दो हो जाते है 

और हमारे हिस्से की सारी समस्याएं 

आधी 

इतना छोटा सा गणित 

अक्सर सियासतों का 

भूगोल और रसायन बदल देता है 


और उसकी एक ही कोशिश होती है 

इंसान इंसान बन पाए 

ना ही दोस्त।


जबकि जब भी एक दोस्त साथ होता है 

तो हम दो हो जाते है 

और हमारे हिस्से की सारी समस्याएं 

आधी।  

Thursday, March 17, 2022

सियासत

इतना कुटील सन्नाटा सा पसरा है 

सुना है दोस्ती अब अनबन है 

और सब खामोश है 

जैसे मन मस्तिक सुन्न कर दिया गया हो 

कोई तो हुआ है कामयाब 

अपने मंसूबो में 


क्या वो भूख है 

या बदन नंगा है 

या है छत की तलाश 


नहीं 

सब के पेट फुले है 

फटे कपडे दरअसल नया तसव्वुर है 

मेरे ज़माने का 

और हाँ 

सब के पास फार्म हाउस भी है 

जहाँ वो डोंट लुक अप वाली सेल्फी खींच 

इंस्टा पर डालते है , कुछ चाह की आस में 


फिर ?

फिर क्या हुआ होगा 

जरूर सियासत फिर भूखी होगी 

नंगी तो थी ही 

और हमेशा बेघर कर देती है 

तीन पीढ़ियों की मेहनत पर 

बस एक बम डाल देती है 

एक पूरा परिवार फिर सड़को पर जाता है 

उदास बच्चे अपना कसूर पूछते हुए 

सीमाएं पर करते है 

और पाते है नया तमगा 

शरणार्थी का 


हमारा पूरा इतिहास 

इसी को दोहराता है 

सियासत सब भुला देती है 

छद्म वेश में नया नारा लेके आती है 

एक नया हिटलर 

फिर देश प्रेम की कस्मे खिलवाता है 

और सीमाएं फिर गर्म हो जाती 

सियासत उसी पर अपनी 

वोटो की रोटी सेकती है 


  

कोई तो हुआ है कामयाब 

अपने मंसूबो में 

सुना है दोस्ती अब अनबन है 

और सब खामोश है 

सियासत ही होगी।

सियासत ही रही है।