जयप्रकाश चौकसे व्यक्ति नहीं, पुरे संस्था थे, सिनेमा कला के। कोई किसी विधा का जानकार होता है , कोई शौकिया तौर पर पढ़ लिख लेता है , और कोई पूरी धरोहर होता है , जयप्रकाश - सिनेमा विधा की जीती जागती धरोहर थे। वो तब के इंसान थे, जब सिनेमा कला और सामाजिक सरोकारों की विधा हुआ करता था, शारीरिक उद्योग नहीं। कृष्णा और राज कपूर , पंचम , लता , सलीम , बलराज , दिलीप युसूफ खान और ना जाने कितने खो चुके खालिस फनकारों के साथ उनका उठना बैठना था। हर एक के साथ बिताये पल उनकी किस्सागोई के हिस्से हुआ करते थे , जैसे समय को पुनर्जीवित कर दिया गया हो और सेलुलॉइड पर जीवित किया जा रहा हो। वे रुपहले परदे के नायाब किस्सागो थे , शायद अन्नू कपूर उस विधा के आखिरी फ़नकार है।
इंदौर के बंसी ट्रेड सेंटर की नयन ऑप्टिक्स पर उनसे मेरा मिलना हुआ था , वही एक और फनकार राहत भाई को , ओशो ध्यान केंद्र पर पास बैठ इत्मीनान से सुनने का नसीब भी हुआ। दोनों अपनी विधा के धुरंधर थे, इंदौर ने बहुत कम समय में बहुत कुछ खो दिया।
२ व्यक्तित्व ने मेरी सोच और पढ़ने लिखने को बहुत प्रभावित किया। एक थे ओशो और दूसरे जयप्रकाश। जयप्रकाश पढ़ते भी बहुत थे , ना जाने किस किस से मेरा परिचय करवाया। मंसूर खान और उनकी किताब The Third Curve का मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा , काफी कुछ बदला। आज जो युद्ध के बादल छाए है , उसके संभावित इशारे भी उस किताब में है।
सिनेमा की बाते करते हुए, सितारों की दुनिया से , दर्शन के माध्यम से , कब वो आम आदमी से मुलाकात करवा देते थे , जादू की तरह लगता था। और आम आदमी को आर के लक्ष्मण की तरह महिमामंडित नहीं किया उन्होंने। वरन उसे उसके विरासत में मिली मजबूर - ईमानदारी , तमाशबीनी , टुच्चेपन को आइना दिखाते थे। तो कही एक छोटी सी आशा भी पाल कर रखते थे। वो सुबह कभी तो आएगी, की तरह. "आशा" , जीने के लिए, अब तक खोजा गया, सब बड़ा मानवीय तर्क है।
वे व्यंगकार से ज्यादा शब्दों के चित्रकार थे, चित्रपट की मायावी और सितारों की दुनिया से भागकर अपने कच्चे आंगन नीम तले बैठा आम आदमी। थोड़ा उदास, थोड़ा मायूस और थोड़ा सा आशावान भी, क्योकि कोयल, नीम के पेड़ से भी मीठी कूक रही होती है।
एक तरफ माया , कला , कथा , सितारे से लबालब दुनिया , दूसरी और नंगा आम तमाशबीनी इंसान।
शायद दर्शन का पूल ही दोनों के बीच कोई जुड़ाव खड़ा कर सकता था।
जयप्रकाश ने इसीलिए दर्शन का सहारा लिया और ताउम्र नीम के पेड़ से मीठा सा कूकते रहे है और हम उन्हें हर सुबह "परदे के पीछे" सुनते - पढ़ते रहे। परदे की पीछे बैठी सवाली गोरी , थाम के तेरे मेरे मन की डोरी। इक दिन बिक जायेगा , माटी के मोल।
माटी का धरतीपकड़, आज माटी में समां गया।
अलविदा, सर। आप अपने हर शब्द-लेख में गर्भित है और रहेंगे।