मोहम्मद जहूर खय्याम - को एक ही तरह से विदाई दी जा सकती है.
सुकून से आज रात्रि को बालकनी में बैठा जाये, नितांत अपने साथ, चारो तरफ घुप्प अँधेरा हो और थोड़ी दूर से मद्धम आवाज़ में "फिर छिड़ी रात बात फूलों की" सुना जाये।
जैसे जैसे रात गहरी होगी, आँखों में नींद की झपकियाँ दस्तक देगी और दिन के उजाले का उथलापन, गहन अँधेरा का सुकून उजागर करेगा। दिलो दिमाग गहरी प्यास लिए जब निशब्दता में व्याप्त सुकून की गोद में आसरा तलाशेगा और शायद उमराव जान अपनी आँखों की मस्ती लेके याद आये। कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है, अपने वक्त में खींच कर लेके जायेगा और पूछेगा : ऐ दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
फिर एक गहरी शांति दिमाग से उतरती हुई दिल तक जाएगी और आत्मा को हील करेगी, एक गहरी नींद अपने आगोश में ले लेगी।
मोहम्मद जहूर खय्याम - को सिर्फ इसी तरह से विदाई दी जा सकती है.
कबीर और ओशो , किसी परमाणु विस्फोट की तरह विचारो और उससे परे हमें झझोरते है।
परिचय पहले कबीर से हुआ। शायद कक्षा ६ की बात होगी , कबीर के दोहे हमारी हिंदी की किताब में शामिल थे। बस पढ़ा और नशा किसी और गृह ले गया।
तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे । मै कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।
मै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे ।
मै कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ॥
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे ।
तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥
सतगुरू धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥
तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे ।
जाने क्या असर था , ११-१२ साल की उम्र में दोहे गाते नाचने लगा था। आनंद परिसीमित नहीं होता, परमात्मा की तरह। जब भी आनंद में डुबो , समझना करीब हो। उससे ज्यादा यादें नहीं है। कबीर आत्मा में उतर चुके थे। शायद आधुनिक कबीर (ओशो ) की तैयारी थी।
ऐसा क्या है कबीर की बानी में ? कबीर विद्रोही थे। मेरा विद्रोह शायद वही से जन्मा और ओशो ने उसे आग दी . कबीर मनुष्य की समग्र मुक्ति को ही शब्द देते हैं -अत्यंत संवेदनशील मन, संतुलित विवेक, गहन चिंतन और एक गहन अंतर्दृष्टि। ये बीज कबीर ने ही बोये। कबीर ईश्वर में डूबकर न तो तत्काल से कटे न दिक्काल से। प्रेम भक्ति ने उन्हें आत्म केन्द्रित नहीं बनाया। कबीर ने अपनी मुक्ति नहीं जगत की मुक्ति चाही। यही मेरे अंतप्रेरणा में अंकित हुए। अपना ही चाहना बहुत टुच्चापन लगा।
कुछ दोहे और ऐसा असर। परमाणु विस्फोट से ही संभव है। विचार मरते नहीं , सच्चाई अगर उनमे समाई है तो , किसी परमाणु विस्फोट की तरह ताकत रखते है। सही कैटलिस्ट मिला और .....सीधे धरती की चुंबकीय ताकत जो हमारी रोज की आपाधापी है , उसे कही पीछा छोड़, आकाश की यात्रा होती है. हमारी आत्मा की मिसाइल अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा में छलांग लगा लेती है। फिर किसी और आयाम पर काम होता है।
और मन से आवाज़ आई -
शर्म लाज सब छोड़ी के, आत्म लगा थिरकाय।
जब कबीरा पढ़न में चला, औरन दिया बिसराय।
खैर माता पिता संभल गए, डांटा फटकारा और वापस खेच कर धरातल पर लाये।
कबीर मेरे पहले परमाणु विस्फोट है , जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण के बंधनो से मुक्ति देकर, धरती से परे, किसी और आयाम पर ले गए।
ओशो दूसरे,जिन्होंने इस गैलक्सी से परे जाके अनेकानेक गैलेक्सी से परिचय करवाया। ओशो आपको व्यग्तिगत रूप से मिलवाते है। आप को सम्बोधित नहीं करते , हाथ पकड़ कर परिचय करवाते है। वो गैलेक्सी जहा से जीवन तारकर इस जीवन मे प्रकट हुए है किन्तु यादे विस्मरण है। कहा से शुरू करू , कहा ख़त्म।
मीरा, दादू ,महावीर, बुद्ध, कृष्ण, शिव , कृष्ण्मूर्ति, नानक, लाओत्ज़ु , जुरजिएफ, रूमी , जीसस , राबिआ ,खैयाम, नचिकेता ,अष्टावक्र और कबीर। और मुल्ला नसरुद्दीन को कैसे भूलू.?
बड़े दिनों बाद कबीर को सुना, अश्रुओ की गंगा ने मन फिर पवित्र किया और कुछ पुरानी , बहुत पुरानी कबीर से पहले परिचय की यांदे ताजा हो गई। इससे पहले की वक्त यादो को भी छीन ले, सोचा उन पलो को शब्दों में बांध रख दू। कभी कोई शायद आये तलाश करते और इस गठरी को खोल आँखों में नमी लिए मुस्कराये.
शुजात हुसैन दिव्यता से गुनगुनाते है , गुलज़ार कहते है ना , एक कबीर, ऊपर से शुजात। नशे इकहरे ही अच्छे होते है।
मोको कहाँ ढूंढें बन्दे, मैं तो तेरे पास में ।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में ।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में ॥
ना मैं जप में, ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपास में ।
ना मैं क्रिया क्रम में रहता, ना ही योग संन्यास में ॥