अक्सर गॉव जाते है शहर
तलाशते है मकसद
भिड़ते लड़ते पीटते
खोते है खुद को
आहिस्ता आहिस्ता
मगर जब भी बारिशे
भिगोती है माटी को।
नम आँखों की बरसातों से
भीतर सौंधी खुशबु फिर महकती है।
गॉव फिर जिन्दा हो उठते है।
मेरे गॉव फिर जिन्दा हो उठते है।
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