डर हमेशा ही एक हव्वा होता है, एक ४००० किलो का हाथी सिर्फ ३ फ़ीट की अंकुश से अनुशासित होता है। लोकतंत्र में ये अंकुश विपक्ष , न्यायपालिका और पत्रकारिता होती है. अब जब के इन तीनो को लगभग न्यून कर दिया गया हो, गेंद जनता की पाली में गिर चुकी है। लेकिन जनता की आवाज़ आखिर कौन होता है ?
लोकतंत्र में साहित्य को ये आखिरी जिम्मेदारी मिलती है, विशेषत व्यंग विधा को। जनता की वो आवाज़ बनने की जो किसी तानाशाह के कानो को चीर वहाँ पहुँचती है, जहाँ कोई न्यूरॉन अधिकतम दर्द पैदा करता है।
एक हरिशंकर परसाई या शरद जोशी सत्ता के घमंड रूपी गुब्बारे की हवा निकालने के लिए काफी है, समाज के गर्भ में लेकिन वैसा व्यक्तित्व पैदा करने की ताकत अब ना रही। ये दौर अंधेर नगरी , चौपट राजा का दौर है. जागते रहो।