रीते शब्द और अर्थ. मटका और पानी. शरीर और आत्मा. फर्क साफ़ हैं और वही फर्क वजह हैं आज के कोलाहल की. एक प्रार्थना और एक शब्दों का खेल..यही फर्क हैं, आज विश्वास हिन् समाज के विघटन का. शब्द जब आत्मा से मिलते हैं तो बनती हैं प्रार्थना, रीते शब्द सिर्फ प्रदुषण बन के रह जाते हैं. एक वो जमाना था, जहा "प्राण जाये पर वचन न जाये" की बात थी. आज सौदे का जमाना हैं और हर चीज की कीमत तय हैं.. शब्द अब रीते हो चुके, आँखों के पानी से. एक खोखलापन और इसे "हर पल जीना" कह के फेसन में लाया जा रहा हैं...
खैर. समय को भोगना ही हैं. तो अपने तरीके से ही जिया जाये. कोई कह गया हैं, "जो तुम्हे बुरा कहे वो खुद बुरा हैं"..इसीलिए फ़िक्र सिर्फ इतनी हो की, हम अपने करीब पहुच रहे हैं या नहीं. क्योकि सारी दौड़ सुना हैं दूर ही ले जाती हैं.:
"हम युही वीराने में अनमने से बैठे हैं,
खबर ये हैं की, बस्ती में हर कोई दौड़ रहा हैं."
आज बेटी के साथ बैठ एक प्रार्थना गानी और सिखानी थी..और क्या याद आता "इतनी शक्ति हमें देना दाता" के सिवा?
कितनी आत्मीय, कितनी प्रेम भरी प्रार्थना!. ऐसा लिखना और सोचना तो दूभर हो ही चूका हैं, क्या हम इस प्रार्थना करने के काबिल भी रह गए हैं?..
चलिए आज हिंदी दिवस पर सुन तो लेते ही हैं.
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हम ना सोचे हमें क्या मिला है
हम यह सोचे किया क्या है अर्पण ,
फूल खुशियों के बाटें सभी को
सबका जीवन ही बन जाये मधुबन
अपनी करुना का जल तू बहा दे
कर दे पावन हर इक मनं का कोना
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूल कर भी कोई भूल हो ना
इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास....